Monday 21 August 2017

पूर्णाहुति..... मेरी पहली यात्रा का अंतिम भाग

नमस्कार मित्रों

कैसे हो आप सब?? 
                  आशा करता हूँ, आप सभी कुशल होंगे। अपनी यात्रा की अंतिम कड़ी लेकर मैं आप सभी लोगों के समक्ष हाजिर हूं। वैसे तो मेरी इस यात्रा में कुछ ख़ास नहीं है, पर यहाँ इसका वर्णन करना इसलिये जरूरी है क्योंकि मेरी इसी यात्रा से मेरे अंदर घूमने का कीड़ा पनपा था, जो शायद इस जन्म में तो मुझे काटता ही रहेगा। सच बताऊं तो मैं खुद भी नही चाहता कि ये कीड़ा मेरे से पल्ला झाड़े।


पिछले भाग में मैंने आपको बताया था कि मेरी सारी खुशियों पर पानी फिर गया। आज मैं आपको उसका कारण बताता हूं। जब मैं ताज महल से बाहर निकला तो जहां जूते निकाले थे वहां जब जूते वापस लेने के लिए गया तो क्या देखता हूँ कि वहां मेरे जूते नहीं थे। यह मेरे लिए एक बड़ा झटका था, क्योंकि वह जूते मैंने मात्र डेढ़ या दो महीने पहले लिए थे। उस समय वहां धूप भी इतनी थी कि उस फर्श पर पैर रखना मानो अंगारों पर चलना और इस भयंकर गर्मी में अपने कमरे तक नंगे पांव जाने की मैं सोच भी नहीं सकता था। अब मेरे सामने केवल मात्र दो ही विकल्प था कि किसी और के जूते उठाउँ और चल दूँ, या फिर अपने जूतों का इंतज़ार करूँ( कोई गलती से डालकर भी जा सकता है)। मैंने दूसरा विकल्प चुना ओर वहां बैठ कर इंतजार किया कि शायद कोई मेरे जूते वापस दे जाए पर  उस प्रतीक्षा का कोई परिणाम नहीं निकला। तब मैंने वहां रखे हुए एक जोड़ी जूते पहने और ताजमहल से बाहर निकल लिया।


               पर हमारे लिए शायद आज का दिन ही खराब था। जब हमने ताजमहल के लिए प्रस्थान किया था तो जो गर्मी के कारण कपड़ो में बदबू हो गई थी, उससे बचने के लिए हमने कपड़े धोकर सूखने के लिए डाल दिए थे। हम वापस आए तो हमारा दिमाग ही सटक गया। एक कहावत है न 
"" कंगाली में आटा गीला""  
लगता था किसी ने हमारे भविष्य का अनुमान लगाकर ही उस कहावत को घड़ा था। इस होटल की छत पर बंदरों के आतंक के साक्ष्य साफ दिख रहे थे और इस आतंकवादी हमले में हमारी 3 जोड़ी जुराब, एक कैपरी और दो टीशर्ट शहीद हो गई। खैर, हम कर भी क्या सकते थे। भारी मन से उन्हें फेंका और खाने के लिए बाहर चले गए। खाना खाकर वापस आए और सो गए।

      लेकिन इस यात्रा का अंत यही पर नहीं होता। अगले दिन हम फतेहपुर सीकरी गए। वहां का बुलंद दरवाजा, जिसका निर्माण अकबर ने करवाया था, उसे देखा। अंदर मुस्लिम संत सलीम चिश्ती की दरगाह थी, उसे भी देखा और 10 रूपय में एक गाइड किया था, उसके झांसे में आकर 501 रुपए की कोई चद्दर पीर पर चढ़ाई। उस समय बालमन था, पहली यात्रा थी, कोई अनुभव नहीं था तो यह सब हो गया, लेकिन आज सोचता हूं कि काश उस समय थोड़ा दिमाग लगा लेता तो मेरे 500रु बच जाते।  खैर इन्हीं खट्टे-मीठे अनुभवों से ही यात्राएं याद रहती हैं।
बुलन्द दरवाज़े के सामने हम दोनों का संयुक्त चित्र।


                फतेहपुर सीकरी से आकर हम मथुरा के लिए प्रस्थान कर गए। सबसे पहले वहां जाकर भगवान श्रीकृष्ण जन्म स्थान को देखा बहुत ही भव्य और आलीशान मंदिर वहां बना हुआ है। सुरक्षा की दृष्टि से हमारे मोबाइल और बेल्ट वगैरह सब बाहर रखवा दिए गए। हम अंदर गए, दर्शन किए और मथुरा के अन्य मंदिरों को देखने के लिए चल दिए। रंगनाथ स्वामी का मंदिर मुझे बहुत प्रिय लगा। फिर रात को कमरा लिया, खाना खाया और सुबह 5:00 बजे का अलार्म लगा कर सो गए। 

                   अगले दिन जब सुबह उठे तो वृंदावन जाने की इच्छा हुई। वहां जाकर सबसे पहले बांके बिहारी जी के दर्शन किए और मित्रों आपको बता देता हूं कि जब 2012 में हमने वृंदावन भ्रमण किया था तो उस समय प्रेम मंदिर (जिसे आज वृंदावन का सबसे आलीशान मंदिर माना जाता है), वह उस समय बनकर तैयार ही हुआ था। उस समय जब हमने प्रेम मंदिर में प्रवेश किया तो मुश्किल से वहां 20 लोग भी नहीं होंगे। आज प्रेम मंदिर की भीड़ से आप सभी परिचित होंगे पर उस समय हमारा सौभाग्य था कि हमने प्रेम मंदिर के हर एक उस कोने को देखा, जहां इस भीड़ में देखना असंभव है। वैसे तो हम गोवर्धन पर्वत दर्शन का विचार भी बना चुके थे, पर मेरे मित्र मोहित जैन के घर से एक जरूरी फोन आ गया और हमें वापसी करनी पड़ी।
यमुना तट पर एक चित्र मेरा भी।


             तो दोस्तों यह थी हमारी पहली यात्रा जिसका लक्ष्य तो कुरुक्षेत्र था पर हम लक्ष्य से भटके और आगरा पहुंच गए इस यात्रा का मेरे जीवन पर यह असर पड़ा कि इससे घुमक्कड़ी का जो बीज मेरे मन मे पनपा आज वो पौधा बन चुका है। और मैं इस पौधे को बड़ा करने के लिये निरन्तर यात्रा रूपी पानी से इसे सींच रहा हूँ।

वैसे तो मैं इस कड़ी को ओर भी लम्बे कर सकता था, पर आप सभी को आगरा आदि स्थानों के बारे में मुझसे भी ज्यादा जानकारी है तो आपका समय मैं खराब नही करूँगा। 2012 की इस यात्रा और 2017 के बीच मे ओर भी कई जगह घूमना हुआ, पर उनके चित्र मेरे पास उपकध नही है अतः उनका वर्णन यहां पर करना बेमानी होगी। 

जल्द ही 2017 में कई गयी यात्राओं के साथ हाजिर होऊंगा, तब तक के लिये आप सब को वन्देमातरम।

 ।।।हर हर महादेव।।।

Tuesday 15 August 2017

मेरी पहली यात्रा, भाग-4...... ताजमहल के प्रथम दर्शन....

नमस्कार मित्रों,
भारत माता की जय के उद्गोष के साथ आप सभी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
आपकी जानकारी के लिये बात दूँ की इस रंगोली में भगवा रंग में जो नक्शा दिख रहा है, वह ""अखण्ड भारत"" का है। इस रंगोली का निर्माण मेरे द्वारा 13 अगस्त को R.S.S. के "" अखण्ड भारत संकल्प दिवस"" कार्यक्रम में किया गया।



 किन्नौर कैलाश से वापस के बाद एकदम आए मित्रों के साथ शिमला घूमने का प्लान बन गया तो आप सब से सम्पर्क नही हो पाया। अभी भी नही हो पाता, पर इस समय कुरुक्षेत्र से कोटा(राजस्थान) का सफर रेलगाड़ी में कर रहा हूँ। गाने सुनकर कानो की ऐसी-तैसी करने से ठीक है, अपने मित्रों के लिये एक यात्रा वृत्तान्त ही लिख दूँ।

खैर, मेरा तो बहुत हो गया अब आगे सुनिए....


नहा धोकर ताजमहल के लिये निकले, ओर छोले- भटूरे खाए। आगरा के बाजार को देखते हुए हम दोनों, मोहित जैन और मै, ताजमहल की ओर प्रस्थान कर रहे थे। गरमी ने हमारा बुरा हाल किया हुआ था। पानी के घूंट पर घूंट गले को तर कर रहे थे। चलते चलते, आधे घण्टे बाद हम ताजमहल के पश्चिमी दरवाजे के सामने आ गए। वहां जाकर पता चला कि टिकट लेनी है तो टिकट वाली लाइन में लग गए। गर्मी के दिन थे, सूर्य देव अपनी तपिश से समस्त आगरा को झुसला रहे थे, मगर ताजमहल की तरफ जाने वाली पंक्ति का छोर नजर नही आ रहा था। सब धीरे धीरे आगे की तरफ सरक रहे थे तो हम भी उनके साथ ही थे। सुरक्षा चेकिंग के पश्चात अंदर जाने दिया। अंदर गए तो देखा लाल पत्थर का बना एक बहुत बड़ा दरवाज़ा हमारे समक्ष सीना ताने खड़ा था। वहां चित्र लिये गए, ओर फिर उसके अंदर गए।
5 वर्ष हो गए , तो उस यात्रा के जो चित्र मैने fb पर डाल रखे थे, केवल वो उपलब्ध हो सके हैं। यह उनमे से एक है।


                        अंदर क्या गए भाइयों, हम तो स्वर्ग में चले गए। उस दरवाजे के अंदर से सफेद संगमरमर की बनी उस विश्व प्रसिद्ध इमारत के दर्शन हुए जिसे दुनिया के लोग ताजमहल के नाम से जानते हैं। उस यात्रा पर गए हुए 5 वर्ष से भी ऊपर का समय हो गया है। उसके बाद मैं 2 दफा ओर ताजमहल जा चुका हूँ, पर वो दृश्य आज भी मेरी आँखों के सामने ज्यों का त्यों है। खैर छोड़िये, धीरे धीरे हम चित्र खीचते हुए अंदर की तरफ जाने लगे। उस इमारत में क्या गजब का आकर्षण था कि मैं उसकी ओर खिंचता ही चला गया, खिंचता ही चला गया। दूर से जो ताजमहल छोटा सा दिखता था, उसे उस दिन पहली बार देखा कि वो जितना भव्य व आकर्षक है, उतना ही विशाल भी है। दूर से देखें, तो लगता है कि सफेद पत्थरों पर रंग- बिरंगी चींटिया घूम रही हैं, मगर वे भांति-भांति के कपड़े पहने हुए लोग थे।
मोहित जैन और मेरा एक संयुक्त चित्र।


                           चित्र खीचते हुए हम ताजमहल के उस हिस्से में प्रवेश कर गए जहाँ मुमताज व शाहजहाँ की कब्र हैं।मुझे व्यक्तिगत तौर पर बड़ा दुख हुआ कि उसमें अंदर बड़ा अंधेरा था। उजाले के नाम पर सिर्फ एक छोटी से बल्ब, जो उस लालटेन सी में जलता है जो उन कब्रो के ऊपर लटकती रहती है। उस समय वैसे मोबाइल नही होते थे जैसे आज हैं। मेरे पास सैमसंग का wave 525 मोबाइल था, जिसमे फ़्लैश लाइट नही थी तो अंदर के जो चित्र थे वो साफ नही आये। आंखों से जो जो देख सकते थे वो देखा, ओर बाहर निकले आये। एक अलग सी प्रसन्नता से मन झूम रहा था कि हमने ताजमहल देख लिया, पर उस खुशी को हवा होते देर नही लगी।

मैं आपको अवश्य बताऊंगा की वह क्या बात हुई जिससे मेरी खुशियो पर पोंछा लग गया, पर उसके लिए आप कुछ इंतज़ार करिए।
तब तक के लिये आपको एक बार फिर से नमस्कार व """ वन्देमातरम"""

Tuesday 1 August 2017

मेरी पहली यात्रा, भाग-3........ आगरा किले का भृमण।

आप सबको मेरी ओर से सुबह की राम राम।

         श्री किन्नौर कैलाश जी की यात्रा के कारण पिछले कुछ दिनों से व्यस्त चल रहा था। यात्रा की कुशल समाप्ति हुई, और अब आप सब के समक्ष उपस्थित हूँ, अपनी पहली यात्रा की तीसरी कड़ी को लेकर। आशा है आप सब पढ़ कर इसका आनन्द लेंगे।

दिनांक- 15 अप्रैल 2012



        जो बस चाँदनी चौक से पकड़ी थी उसने हमे आगरा में किले के बिल्कुल सामने उतारा। वो जगह प्राइवेट बसों की पार्किंग के रूप में उपयोग की जाती है। मार्च 2017 की आगरा यात्रा में भी यह जगह ऐसे की ऐसे ही थी। खैर, हम बस से उतरे और उतरते ही गन्ने के रस के 1-1 गिलास पीकर गर्मी से निजात पाने का प्रयास किया। फिर किले के प्रवेश द्वार की ओर चले गए। टिकट लेने वाली लाइन में खड़े होकर टिकट खरीदी ओर मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश कर गए। जैसे ही अंदर प्रवेश किया, गाइडों के झुंड ऐसे पास आने लगे जैसे शहद पर मधुमक्खी। मुझे एक बात आज भी परेशान करती है ये गाइड बिल्कुल पास आकर क्यों बोलते है- सर! गाईड। जैसे गाइड न हों, कोई मुजरिम हों। खैर, हम शहद जैसे मीठे नही थे, पर हमारा जवाब मीठा सा था- नही भाई! जो शायद उसे कड़वा लगा। जैसे ही अंदर प्रवेश किया तो किले की भव्यता ने मुझे तो बहुत आकर्षित किया। पर गाइड के बिना ये सब साधारण ही लग रहा था, भवन की वास्तुशिल्प व निर्माण कला की जानकारी तो गाइड ही दे सकते हैं।



                 बस, यहीं पर ब्राह्मण की 52 बुद्धि ने अपना काम दिखाना शुरू किया। वहां एक ग्रुप किले को देखने घूमने के लिए आया हुआ था, उनके साथ मे गाइड भी था जो उन्हें छोटी से छोटी बातें बता रहा था। बस, हम भी ऐसे हो गए, जैसे उसी समूह के सदस्य हों। तब वो गाइड भी हमें किले के निर्माण से सम्बंधित जानकारी देने लगा और तब जाकर के मुगल बादशाहों की शानो- शौकत का अंदाज़ा लगाया जाने लगा। युद्ध गलियारा, बड़ा दरवाजा, हाथीखाना, जहांगीर के नहाने का हौज, जोधा महल आदि के पीछे के सत्य हमे भी पता लगने लगे।

                               


                               फिर हम गए उस स्थान पर, जहाँ औरंगजेब ने शाहजहाँ को कैद कर के रखा हुआ था। उसकी दीवारों पर लगे हुए रत्न देखे, अचम्भा भी बहुत हुआ, पर इन बातों को सत्य मानने के अलावा और कोई चारा भी तो नही था। उस जेल की खिडकी से ताजमहल दिखा पहली बार, सफेद संगमरमर की बनी हुई उस विश्व- प्रसिद्ध इमारत के पहली बार दर्शन, गर्मी की दोपहर के तपते हुए सूरज की किरणें ताज के गुम्बज पर पड़कर उसकी चमक में ओर भी अधिक वृद्धि कर रही थी। आंखों ने एकबारगी तो विश्वास नही किया कि ताजमहल मेरे सामने है। बस जब होश आया तो मन विचलित सा होने लगा, आगरा के इतने बड़े किले में भी घुटन सी महसूस होने लगी ओर लगा कि ताजमहल ही अब इस मर्ज की दवा है, तो बस, जल्दी से जल्दी ताजमहल के पास जाने की इच्छा बलवती होने लगी। बस , फिर कब दीवान-ए-आम आया और कब दीवान-ए-खास , मुझे कुछ पता नही।



                        खैर मित्रों, मुझे आज भी एक बात बहुत बुरी लगती है। वहां के गाइडों के मुँह से सुना था कि इस किले का सिर्फ 20 प्रतिशत भाग ही आम जनता के दर्शनार्थ खोला गया है, बाकी भाग पर कड़ा पहरा है। तो मुझे पहली बार लगा कि जब कभी मैं किसी उच्च पद पर आसीन होऊंगा, तब मैं इस बचे हुए हिस्से को अवश्य देखूंगा। ये सोचते सोचते हम बाहर आ गए, ऑटो लिया और चल  दिए ताजमहल की ओर। जाहिर है, हमे रात को आगरा में ही रुकना था तो उस ऑटो वाले को बोला कि भाई, कोई सस्ता सा कमरा भी दिलवा दे। वो हमें उसके जान पहचान के किसी लॉज में ले गया। नाम था- Taj View Lodge, हालाँकि वहाँ से ताजमहल की एक मीनार का सिरा तक नही दिख रहा था। कुल मिलाकर कमरा अच्छा था, 250 में डबल बेड ओर अटैच बाथरूम, ओर क्या चाहिये? अंदर गए,नहाए धोए, कल के कुछ कपड़े मैले पड़े थे, उन्हें धोकर सूखने के लिए तार पर डाल दिया व चल दिए आधुनिक विश्व के 7 आश्चर्यों में शुमार भारत की सबसे अधिक देखी जाने वाली जगह- ताजमहल की ओर।




                       अगले भाग में आप सब को ताजमहल की सैर करवाएंगे, तब तक हम आगरा के छोले- भटूरे चट कर देते हैं।

    ।।।।वन्दे-मातृभूमि।।।

यह है दीवान-ए-आम। कहते हैं कि यहाँ झरोखे में मुगल बादशाह सिंघासन पर बैठकर आम जनता की समस्याएं सुनते ओर उनका निवारण करते थे।

ये है ""जोधा का महल"। राजा मानसिंह की पुत्री जोधाबाई को इसी महल में रखा जाता था, जिस कारण इसका नाम जोधा का महल पड़ा।
यह है आगरा के किले का मुख्य प्रवेश द्वार, टिकट खिड़की इसके थोड़ी सी अंदर जाने के बाद है। न जाने कितने गहरे राज खुद में समेटे हुए हैं इस किले के दरवाजे।