Don’t listen to stories, tell the stories

Sunday 15 July 2018

जीत कर भी मिली हार...यही है चूड़धार... भाग-4


राम-राम मित्रों

सबसे पहले तो आप सब से मैं क्षमा मांगता हूं। क्षमा का कारण यह है कि बहुत दिनों बाद मैं आप सब के समक्ष आया। कारण बहुत थे, बीच में तो मैं कुछ समय के लिए संघ की योजना से विस्तारक गया और उसके पश्चात अपनी पढ़ाई से संबंधित कार्यों में व्यस्तता रही। इस बीच में समय नहीं मिल पाता था ब्लॉग लिखने के लिए। वैसे इस दरम्यान, बहुत से मित्रों से सम्पर्क में रहा, फेसबुक व whatsapp के माध्यम से। एक यात्रा लेख चूड़धार यात्रा से सम्बंधित बहुत पहले प्रकाशित हुआ था। व्यस्तता के कारण लिख नही पा रहा था तो बहुत से दोस्तों ने मांग की अगले भाग की। तब लगा कि दोबारा उसे फिर से जारी रखना चाहिए। अब कोशिश की है दोबारा से फिर उसी टच में आने की। तो लीजिये, चूड़धार यात्रा का चौथा भाग......
                        हरिपुरधार की देवी
पिछले भाग में आपने पढ़ा कि हम हरिपुरधार पहुंच गए थे और मंदिर जाने वाले थे। हमने प्रसाद लिया और मंदिर की तरफ प्रस्थान कर गए। हरिपुरधार में जो मंदिर है वह एक देवी का मंदिर है, जिनका नाम है भंगायणी देवी। भंगायणी देवी की कथा बहुत ही रोचक है। वह कथा भी आपको इस भाग में जानने को मिलेगी, पहले मंदिर पहुंच जाएं।
मिल जाए अगर आसमां, 

         अंग्रेजी में एक कहावत है- every coin has two sides. अब बाइक यात्रा को ही ले लो। बाइक यात्रा का एक फायदा यह है कि आप जहां मर्जी रोक लो, जैसे मर्जी चलाओ, प्रकृति के नजारे अपनी मर्जी से देखते चलो। पर इसका एक नुकसान यह है कि इसमें पीछे बैठने वाले की जान पर बन आती है, खास कर पहाड़ी यात्राओं में। कारण आप मे से अधिकांश जानते होंगे। जब मोटरसाइकिल ऊपर की ओर चढ़ती है तो पीछे वाले बन्दे का जोर नीचे की ओर पड़ता है(बेशक हल्का सा ही हो), यही जोर जब 10-15 मिनट हो तो कोई बात नही, पर जब ये घण्टो में हो तो बैंड बजना तय है।

         यही सब मेरे साथ हुआ। तिवारी को अपनी मोटरसाइकिल कुछ ज्यादा ही प्यारी है। पट्ठे ने पूरी यात्रा में मुझे बाइक नही चलाने दी। वो रस्तो की कठिनाई देख रोता रहा, मैं उससे बाइक मांगता रहा क्योंकि चलाने वाला मस्ती में दर्द भूल जाता है, पर उसे रोना मंजूर है अपनी छम्मक-छल्लो किसी को देना मंजूर नही। जब मंदिर की ओर चलने लगे तो बड़े आराम का अनुभव हुआ। अब इतनी देर से बैठे बैठे शरीर के कुछ अंग जुड़ से जाते हैं। ऐसे में उन्हें आराम मिलता है। थोड़ी जलन सी भी कम होती है। #feeling cool. वैसे मंदिर तक जाने के लिए लगभग 70 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। रास्ता बहुत अच्छा बना है, तो सीढियां थकान पैदा नही करती।

               भंगायनी देवी की आसपास के इलाके में बहुत अधिक मान्यता है। सिरमौर के लगभग सारे और सोलन के कुछ इलाकों में भंगायनी देवी को कुल देवी के रूप में पूजा जाता है। भंगायनी देवी के मंदिर में प्रत्येक साल तीन-चार दिनों का मेला भी आयोजित किया जाता है। कुल मिलाकर बात करें तो भंगायनी देवी के मंदिर में चढ़ावा बहुत आता है और उस चढ़ावे का सदुपयोग आपको इस मंदिर परिसर में देखने को भी मिलेगा। श्रद्धालुओं को कोई दिक्कत न हो, इसकी समुचित व्यवस्था मंदिर प्रबंधन समिति द्वारा की गई है। मैं फिर भटक गया, हम सीढ़ियां चढ़कर मंदिर पहुंचे और जब दर्शन के लिए मैंने अपने जूते उतारे तो एकदम से शरीर में सिरहन सी दौड़ गई।
क्यों??
अरे भाई फर्श ठंडा था। फिर मंदिर के गर्भगृह में पहुंचे व देवी मां के दर्शन किए। अंदर फोटो खींचने की मनाही थी। हमने भी नियम नहीं तोड़े और स्वरूप दर्शन को केवल आंखों में ही कैद किया। प्रसाद चढ़ाया और बाहर आ गए। बाहर आकर जूते डाले और फिर शुरू हुआ फोटो सेशन। लो देखो आप भी:-

Zoom करके देखोगे, तो सामने चोटी पर आपको भंगायनी माता का मंदिर ही दिखाई देगा।

ये हैं मंदिर की सीढियां। 

मंदिर के एक तरफ कुछ बर्फ बची हुई थी। ये उत्तर-पूर्वी दिशा में है। यहां सूरज की सीधी रोशनी बहुत कम पड़ती है, ओर पड़ती भी शाम को ही है। तो ये लम्बे समय तक बिना पिघले रहती है।

ये है भंगायनी देवी का मंदिर। फ़ोटो अच्छी नही है, क्योंकि उस समय मुझे केवल अपनी ही फ़ोटो लेने का शोंक होता था।

ओर ये अपन, माता के आगे हाथ जोड़ते हुए।

चलिये, अब आपको भंगायनी देवी की कथा भी सुनाते हैं। तो भक्तों:-


इस कथा में शिरगुल महाराज का अहम स्थान है। शिरगुल महाराज के बारे में आपको पता लगेगा, पर तब, जब उनके बारे में महत्वपूर्ण बात होगी। अभी भंगायनी देवी का महत्व ज्यादा है तो उनकी ही बात करते हैं। तो हुआ यूं कि एक बार शिरगुल महाराज कुछ काम से दिल्ली चले गए। उस समय दिल्ली में तुर्कों का राज्य होता था। जब वहां के लोगों ने शिरगुल महाराज को देखा तो उन्होंने राजा से शिकायत की कि एक बड़ा ही लम्बा-चौड़ा व्यक्ति, जिसका गौर वर्ण है और ललाट पर तेज है, हमारे राज्य में घुस आया है। कहीं वो राज्य पर आक्रमण ना कर दे, इस डर से राजा ने शिरगुल महाराज को बंदी बना लिया और उन्हें चमड़े की बेड़ियों में कैद कर दिया। उनके साथियों ओर दिल्ली की कुछ जनता ने जब विरोध किया तो राजा ने ऐलान किया कि मैं शिरगुल महाराज को छोड़ दूंगा, पर शर्त एक होगी कि उनकी बेड़ियों को दांतों से काटना होगा। अब हिन्दू जनता धर्म टूटने के चक्कर से बेड़ियां काटे न और शिरगुल महाराज छूटे न।

                उसी कालखंड में गोगा जाहरवीर जी भी दिल्ली गए हुए थे। जैसे ही उन्हें शिरगुल महाराज के कैद होने के बारे में पता चला तो वह उन्हें कैद से आजाद करवाने को उतारू हो गए। राजा ने जिस बंदी गृह में शिरगुल महाराज को बंद कर रखा था, उसके बारे में केवल वहां के कर्मचारियों को ही ज्ञात था। किसी तरह गुप्तचरों का सहारा लेकर जाहरवीर जी बंदी गृह में प्रवेश तो कर गए, लेकिन उन्हें शिरगुल महाराज की कोठरी का पता नहीं लगा। कहते हैं कि वहां पर एक महिला, जो भंगी जाति की थी, झाड़ू पोछा का काम करती थी। गोगा जाहरवीर जी ने उनसे प्रार्थना की कि हे बहन! आप मुझे शिरगुल महाराज का पता बता दीजिए। उनकी अनुनय-विनय ने उन महिला को प्रभावित किया और उन्होंने कहा कि मैं बोल तो नहीं सकती क्योंकि यहां पहरेदारों का पहरा है। जिस भी कोठरी के आगे मैं कूड़ा-करकट डाल दूंगी, तुम समझ लेना कि उसमे ही शिरगुल महाराज कैद हैं। गोगा जाहरवीर उनका संकेत पाकर कोठरी में गए और दांतो से उनकी चमड़े की बेड़ियां काटी। क्योंकि, जाहरवीर जी हिन्दू थे और चमड़े की बेड़ियां उन्होंने अपने दांतो से काटी तो उनकी शक्ति तत्काल क्षीण हो गई। जब शिरगुल महाराज ने उनसे पूछा कि तुम्हें मेरा पता कैसे लगा और उन्होंने महिला के बारे में बताया। शिरगुल महाराज ने तबसे उन्हें अपनी बहन बना लिया और उन्हें हरिपुरधार की देवी के रूप में सम्मानित किया। भंगी जाति की होने के कारण ही इनका नाम भंगायनी देवी पड़ा। तब से लेकर आज तक हरिपुरधार के आसपास के इलाकों में भंगायनी देवी को कुल देवी के रूप में पूजा जाता है। भंगायनी देवी मंदिर के ठीक सामने ही चूड़धार की चोटी है जहां शिरगुल देवता का मंदिर विद्यमान है।


इसके पश्चात हम वापिस नीचे हरिपुरधार के बाजार में आ गए।वहां कुछ लोग बैठकर हाथ सेक रहे थे। मैने उनसे नोहराधार का रास्ता पूछा उन्होंने बता तो दिया, लेकिन साथ ही एक प्रश्न भी दागा-नोहराधार में क्या करोगे भाई जी??
 मैंने उन्हें बताया कि मैं चूड़धार जा रहा हूं। तो उनमें से एक बोला- अरे पागल हो क्या भाई जी? इस समय चूड़धार कोई नहीं जाता, आप कैसे जाओगे??
अरे भाई, चला जाऊंगा ऐसे ही।
भाई जी, अभी बर्फ बहुत है ऊपर। आप फंस जाओगे। अभी पिछले दिनों ही 5 लोग मरे हैं।


               उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि सभी लोग ऐसा बोलते हैं कि चूड़धार नहीं जाना, नहीं जाना, खतरा है। तो गलत तो वे बोल नही रहे होंगे। उनकी बातों से तिवारी जी भी हतोत्साहित हुए और कहने लगा- आज यहीं रुकते हैं, कल अपने घर चले जायेंगे। तब मैं बोला, अब यहां आए हैं तो अब यहां से वापिस जाने का तो कोई मतलब ही नहीं। भाई तिवारी! नोहराधार चलते हैं, वहां से निकल लेंगे कल।

          उस समय लगभग 5:15 हुए थे और हमने अपनी बाइक नोहराधार वाले रास्ते पर मोड़ ली। हरिपुरधार से नोहर आधार लगभग 35-40 किलोमीटर है और रास्ता बहुत ही खराब है। ज्यों ही हम 5-7 किलोमीटर आगे गए, अंधेरा होने लगा। तब एक जगह रुक कर लघुशंका की और फिर आगे निकल लिए। थोड़ी दूर जाने के बाद स्थिति यह हो गई कि हमें बाइक की हेड लाइट जलाकर चलना पड़ा। अब आप खुद से कल्पना कीजिए- घुप्प अंधेरा, नागिन की तरफ बलखाती हुई खराब सड़कें, जिनका अगला मोड़ भी न दिखता हो और सुनसान बियाबान पहाड़ी जंगल जिसमें से रह-रहकर वन्य पक्षियों की आवाज आती हो। ऐसे में आपको लगेगा, यार कहीं कोई एक दम से आगे आकर हमें लूट ना ले। इस जंगल में डाकू भी हो सकते हैं और जान लेने वाले जंगली जानवर भी। डर तो लग रहा था पर चलते रहने के अलावा और कोई चारा भी नही था। हालांकि, यह बात बाद में अपने अनुभवों से पता चली कि हिमाचल में आपको जंगली जानवरों से जरूर भय है, पर इंसानी जानवरो से नही। क्योंकि यहां सिर्फ इंसान ही रहते हैं। 
जहां हम रुके थे, वहां से सूर्यास्त होता हुआ बड़ा मस्त लग रहा था। उसी लम्हे को मैं अपनी आंखों में कैद कर रहा था, ओर तिवारी ने मुझे कैद कर लिया।


सूर्यास्त के बाद ठंड थोड़ी ओर बढ़ गयी थी तो टोपी लगानी पड़ी।


           
               इसी तरह चलते हुए हम नोहराधार आ पहुंचे।नौहराधार चूड़धार के लिए बेस कैंप है। यहां से जो रास्ता चूड़धार जाता है, उसके बिल्कुल सामने एक ढाबा है- चौहान का ढाबा। बस हमने जाते ही वहां ब्रेक मारे और गरमा गरम खाना खाया। शायद, 70 रुपये की डायट थी। 2 सब्जियों के साथ पेट भर के छको। चौहान जी के यहां रुकने की व्यवस्था भी है- ₹300 प्रति कमरा और ₹70 प्रति बेड डोरमेट्री। अपने को क्या करना था, सिर्फ कमर सीधी करनी थी, तो डोरमेट्री चले गए। डोरमेट्री में उस दिन केवल तिवारी और मैं ही थे। वहां लगभग 6 single bed थे और 15-20 रजाई रखी थी।मैंने तो दो रजाई उठाई और लेट गया। थोड़ी देर बाद वहां एक व्यक्ति आया जो हिमाचली ही था। बस फिर थोड़ी देर उससे भी चूड़धार जाने के बारे में बातचीत की। आणि हाँ, चौहान साहब(ढाबे वाले) ने भी ओर डोरमेट्री वाले साहब ने भी चूड़धार न जाने की सलाह दी। इसका परिणाम यह हुआ कि तिवारी जी ने साफ-साफ मना कर दिया जाने से। मैं तो रुकने वाला था नही। निर्णय हुआ कि मैं तो जाऊंगा ही। जहां मुझे लगा कि बर्फ ज्यादा है और मैं आगे नही जा पाऊंगा, वहां से मैं वापिस लौट लूंगा। तिवारी जाना चाहे तो स्वागत है, अन्यथा इसी कमरे में वो एक दिन आराम करे। कल जाकर मैं परसो तक नीचे आ जाऊंगा। सुबह चूड़धार जाने की भीष्म-प्रतिज्ञा कर के मैं तो निद्रा रानी के आगोश में चला गया।

क्रमशः......

चूड़धार यात्रा के पिछले भाग पढ़ने के लिए नीचे दिए गए links पर जा सकते हैं:-
    फरवरी के फन....चूड़धार में
1. जीत कर भी मिली हार...यही है चूड़धार.... भाग-1
2. जीत कर भी मिली हार...यही है चूड़धार.... भाग-2
3. जीत कर भी मिली हार...यही है चूड़धार... भाग-3

एक मोड़ से दिखता हरिपुरधार का नज़ारा।

कहने को ये पहाड़ हैं, पर मेरे लिए ये दिल का सुकून हैं।


हरिपुरधार के बाद ऐसा हो जाता है रस्ता। जगह जगह गड्ढे, ओर one-sided road



इस रस्ते की वीडियो बना रखी थी। उसी में से ये screenshot लिया है ☺☺☺..... फ़ोटो के दाएं कोने में ध्यान से देखिए....

मैं सोच रहा था, कब आये नोहराधार। रात में इन रस्तो पर कैसे बाइक चलाएंगे??

और लो, आ गयी वो घड़ी भी.... आपको दिख रहा है क्या कुछ???........अरे भई! हमे भी नही दिखा था।

ऐसे में स्पीड सिर्फ 15-17 किलोमीटर प्रति घण्टा ही थी। जगह जगह गड्ढे और रात का समय.....


ऐसे रस्तो पर रात में चलने से बचना चाहिए। हमे ही पता है, उस समय हमारी क्या हालत थी।
नोहराधार में कमरे में आकर जब 2 रजाईयों में घुसा, तब जाकर ठंड से आराम मिला।