Don’t listen to stories, tell the stories

Tuesday 25 December 2018

चल भोले के पास....चल किन्नर कैलाश... भाग-2

गतांक से आगे

प्रारंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
27 जुलाई 2017
सुबह लगभग 9:15 के करीब तो मैं भंडारे में पहुंचा ही था, उसके बाद 10-15 मिनट वहां के वातावरण में खुद को ढालने में लग गए। तत्पश्चात शौच आदि क्रियाओं से निवृत्त होकर कुछ समय कमर भी सीधी की। आखिर कल रात 6 बजे का बैठा हुआ मैं 10 बजे बस से उतरा था। इसी बीच में नाश्ता भी किया। उसी दौरान मैं फोन पर घर वालो को अपने पोवारी पहुंचने ओर अगले कुछ दिन बात न होने की सूचना दे रहा था। मैं हरियाणवी में ही बात कर रहा था। बात खत्म होते ही एक शख्स मेरे पास आये और पूछा कि मैं कुरुक्षेत्र की तरफ का हूँ क्या??
मैने हाँ में जवाब दिया तो पता चला कि उनका नाम सतीश कुमार जी था और वो पिपली(कुरुक्षेत्र) के रहने वाले थे। वो दर्शन करके लौट चुके थे। कुछ हिदायतों के साथ-साथ उन्होंने मुझे अगले वर्ष अपने साथ आदि कैलाश यात्रा पर जाने का न्योता दिया। नम्बरो का आदान-प्रदान हुआ और कुछ चित्र भी। उन्हें जाना था तो वो चले गए।
पोवारी में भंडारे से निकलते ही ऐसा नजारा दिखता है।
                   
जो चश्मे वाले हैं, वो सतीश जी हैं कुरुक्षेत्र वाले।

           इन सब के चलते लगभग 11 बजे का समय हो गया था। फोन की बैटरी 84% हो चुकी थी। मैं सोच रहा था कि 100% हो जाए तो मैं यहां से अपने गंतव्य किन्नर कैलाश की ओर प्रस्थान करूँ। उस समय मेरे पास oppo का a57 फोन था, जिसकी बैटरी थी 3200mah की।
         अब इसके पीछे का शास्त्र सुनिए- यदि आप भी मेरी तरह गरीब घुमक्कड़ हैं, या budget ट्रैवलर हैं और आपके पास power bank नही है। गरीब इसलिए कहा कि आजकल power bank सबके पास ही होता है। पर अपने पास तो नही है....और आप चल दिये किसी यात्रा पर। फोन तो हद से हद एक दिन फ़ोटो खींच लेगा, फिर क्या करोगे?? इसका जवाब मैं देता हूँ....बस आपको ये करना है कि फोन से सिम निकालनी है और किसी अन्य फोन में डाल लेनी है। अब फोन को aeroplane mode पर लगा दो। brightness को auto की बजाय इतना रखिये कि आपको स्क्रीन देखने मे दिक्कत न आए... बस, निकल पड़िए अपने लक्ष्य की ओर।
दोस्तों, ये तरीका अपनाकर मैं 5-5 दिन की यात्राओ की फ़ोटो भी खींच चुका हूँ, ओर आज तक तो फोन कभी बन्द नही हुआ।
             वापस आते हैं यात्रा पर...इसी बीच वहां स्थित अन्य यात्रियों से बातचीत होने लगी। तभी वहां भंडारे के संचालक नेगी साहब आ गए। उन से राम-राम हुई तो उन्होंने कहा कि आज आप यही भंडारे में विश्राम करो और कल सुबह 5 बजे यहां से प्रस्थान करना। अगर अब आप 11 बजे निकलते हैं तो आप गणेश पार्क तक नहीं पहुंच पाओगे। कल अगर आप यहां से 5 बजे सुबह निकलोगे तो अब शाम तक आराम से गुफा में पहुंच जाओगे। मैंने पूछा गणेश पार्क कितने दूर है? तो उन्होंने बताया कि लगभग 12 किलोमीटर।
   You might also like:- जीत कर भी मिली हार...यही है चूड़धार...भाग-4
  ये सुनते ही शरीर मे रक्त व उत्साह दोनो का संचार दुगना हो गया। असल मे, उन दिनों मैं हर रोज 8 किलोमीटर की दौड़ लगाता था। मुझे लगा कि 12 किलोमीटर कोई बहुत अधिक नहीं होगा। बेशक पहाड़ी 12 हैं तो क्या हुआ....सोच लेंगे आज 8-8 किलोमीटर के 2 सेट लगा लिए। तो सब के मना करने के बावजूद भी मैंने निकलने का फैसला किया। यहां भंडारा लगाने वालों की दात देनी पड़ेगी। जनसहयोग से इकठ्ठा हुई राशि का जो सदुपयोग यहां होता है, वैसा मैने कहीं नही देखा। स्वेच्छा व सेवाभाव से 15-20 दिन अपने घर से दूर रहकर विभिन्न प्रदेशों से आए व्यक्तियों को भोजन-पानी और रहने की सुविधा उपलब्ध करवाते हैं। जब मैं निकलने लगा तो भंडारे के स्वयंसेवकों ने मुझे एक लाठी प्रदान की और एक पैकेट जिसमें शायद ग्लूकोज के पैकेट, बिस्किट और कुछ खाने का सामान था और पानी की 1 बोतल भी। मैने कहा कि मेरे पास पानी की बोतल है, मैं कहीं से भी पानी भरकर पी लूंगा। यह बोतल आप रखिये, किस अन्य यात्री के काम आ जायेगी। तो उन्होंने कहा कि जो पानी पहाड़ो से निकलता है, उसे पीने से बचें और यह मिनरल वाटर की बोतल तो आपको ले जानी ही पड़ेगी। उनका सम्मान करते हुए मैंने बोतल ले ली और वहां लगे हुए किन्नर कैलाश महादेव के स्वरूप चित्र की ओर सिर झुकाकर उनसे सफल यात्रा ओर अपने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ करने की कामना की और अपने कदम भंडारे से बाहर की ओर बढ़ा दिए।
Zoom करो...बादल दिखेंगे। उनके अंदर देखो, कुछ बर्फीली चोटियां दिखेंगी.....बस वहीं जाना है उनके पास...... पर कई पहाड़ पार करके।
               प्रच्छन्न से प्रत्यक्ष की ओर :-

                   बाहर सड़क पर आकर रिकांगपिओ की तरफ लगभग 200 मीटर चलने के बाद एक झूला पुल आता है, जहां से आपको सतलुज पार करनी होती है। जैसे ही आप सतलुज पार करते हो, किन्नर कैलाश की तरफ जाती हुई मानव निर्मित सीढ़ियां आपका स्वागत करती हैं। दूर से देखा तो यह झूला पुल मुझे बहुत खतरनाक लगा। अपने रौद्र रूप में घर्र-घर्र करती हुई बहती सतलुज और उसके ऊपर एक लोहे की तार पर पहिए के सहारे चलती हुई लोहे की टोकरी जिसमें 2 लोग बैठकर जाते हैं। बीच में सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं। अब एक जानकारी और सुनिए.....असल मे ये जो झूला पुल का concept है न, ये झूला पुल का नही है। ये जो टोकरीनुमा पुल है, ये असल मे सेबों की ढुलाई के लिए प्रयुक्त होता है। ऊंचाई पर या दुर्गम स्थानों पर लोहे की मोटी तार खींचकर पहिये से टोकरी लटका देते हैं। साथ में जनरेटर जोड़ देते हैं। ऊपर से नीचे तो टोकरी खुद ही आ जायेगी, वापिस ऊपर भेजने के लिए जनरेटर से भेजते हैं। उसी सेब ढुलाई के concept को यहां लागू किया गया है, जो जोखिमपूर्ण है। पर जब आपके पास कोई और रास्ता ना हो, तो आपको वो रास्ते अपनाने पड़ते हैं जो बहुत मुश्किल साबित होते हैं। पर हम तो संघ के स्वयंसेवक हैं, और हर रोज अपनी प्रार्थना में यही कहते हैं-
                श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं।
                       स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्।।
      अर्थात, बेशक यह मार्ग अनेकानेक कठिनाइयों और कंटकों से भरा पड़ा है, पर फिर भी हमने इसी कठिन व कांटो वाली राह को अपनी स्वेच्छा से चुना है। यही बात यहां पर सिद्ध होती साबित हुई। सतलुज पार करने के लिए एक ओर पुल भी है, लेकिन वह डेढ़ किलोमीटर आगे जाकर है। अब डेढ़ किलोमीटर आगे जाऊं, फिर उस पुल को पार करूं और फिर डेढ़ किलोमीटर वापस आऊं तो 3 किलोमीटर का सफर फालतू में करूँगा। 3 किलोमीटर मतलब आधे से पोना घण्टा, जबकि वही सफर मुझे 50 मीटर में पड़ेगा। यह 50 मीटर घाटे का सौदा साबित हो सकता है पर जब भोलेनाथ पर विश्वास हो, तो यह सब बाधाएं आपका रास्ता नहीं रोक सकती।
आप इसे भी पसन्द करेंगे:- हरियाणा का हिमालय आदिबद्री

           जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि टोकरी में बैठकर 2 लोग इस तरफ आ रहे हैं। पर ये क्या, वो तो खुद ही रस्सी खींच कर टोकरी में ही इकठ्ठा कर रहे हैं....क्या मुझे भी ऐसे ही जाना पड़ेगा। वहां एक शेड बना हुआ था। मुझे लगा कि इसमें कोई होगा। मैंने आवाज लगाई तो उसमे से 2 महिलाएं बाहर आईं। मैंने कहा कि मुझे उस तरफ जाना है, तो उन्होंने कहा 5 मिनट लगेंगे। उन्होंने आवाज़ लगाई तो उसी शेड में से एक आदमी बाहर आया। तब वो बात करने लगे...अपनी किन्नौरी बोली में। मैं कुछ कुछ अंदाजा लगा पाया कि वो आदमी मुझे खींचेगा। मैं सोच ही रहा था कि वो भी यहां, मैं भी यहां....फिर कैसे खींचेगा?? तभी वह व्यक्ति लोहे की टोकरी में बैठा और रस्सी से खुद ही टोकरी खींचने लगा। अब मैंने देखा कि लोहे की तार के साथ-साथ डबल रस्सी भी बंधी हुई थी, जो दोनों तरफ से टोकरी खींचने के काम आती है। वो रस्सी खींच-खींच कर टोकरी में ही इकट्ठा करता रहा और इस तरह दूसरे पार पहुंच गया। उसके जाने के बाद हमने वो टोकरी खींची और मैं बैठ गया उसमे अपने बैग ओर लट्ठ के साथ। उधर से वो सज्जन टोकरी खींचने लगे। 8-10 फ़ीट के बाद नीचे देखा तो होश फ़ाख्ता ही गए। मेरे से 60-70 फुट नीचे सिंहनाद करती हुई सतलुज बह रही थी। आपने एक बात देखी होगी...जब आप किसी चौड़ी नदी के पास, समुंदर के किनारे या किसी पहाड़ की धार पर होते हो, तो वहां वायु की गति सामान्य से कुछ ज्यादा ही होती है। कारण, उसके आसपास का वातावरण खाली होता है तो वहां हवा अपनी मर्जी से बहती है क्योंकि उसकी राह में कोई अवरोध नही होता। मेरे केस में भी ऐसा ही हो रहा था  यहां सतलुज का पाट काफी चौड़ा है और सतलुज बहती भी एक घाटी में है तो हवा तेज चल रही थी। जब आप किसी टोकरी में एक रस्सी के सहारे लटके हो  और खींचने पर वह टोकरी तो हिलती ही है, कुछ हवा भी उसे हिलाती है...तो टोकरी दाएँ-बाएँ हिल रही थी। टोकरी के साथ साथ मेरा दिल भी हिल रहा था। तैरना मुझे आता नहीं, अगर नीचे गिरा तो मृत्यु निश्चित है। पर वो कहते हैं ना जब मूसली में सिर दे दिया तो ऊखल से क्या डरना....क्या कहा.... मैं गलत बोल रहा हूँ। जी हाँ.... अब लग रहा है कि गलत है, पर उस समय ऊखल-मूसल सब mix हो गए थे।
             वैसे तो मैंने साइंस दसवीं के बाद छोड़ दी थी, पर ऐसी विकट परिस्थितियों में साइंस ही काम आती है। उस समय मनोविज्ञान का एक नियम ध्यान में आया कि जब आप किसी चीज से ध्यान हटाना चाहते हो, तो इसका सबसे बढ़िया उपाय है कि किसी दूसरी जगह ध्यान लगाओ। तब मैंने अपनी आंख मूंद ली। आंख बंद करने के बाद तो और भी ज्यादा डर लगने लगा। तब मैंने एक उपाय सोचा.....अपनी जेब से मोबाइल निकाला और अपनी वीडियो बनाने लगा। इससे मुझे कुछ राहत मिली। नहीं..नहीं...नहीं, खतरा कम नहीं हुआ बल्कि मेरा ध्यान खतरे से distract होकर फोन में लग गया। जब तक मैं दूसरे किनारे के पास नहीं पहुंच गया, मैं वीडियो बनाता रहा। तो जी, इस तरह से सतलुज पर हुई। उस तरफ जाकर मैने पूछा कि कितने पैसे हुए तो उन सज्जन ने कहा कि यह सुविधा सरकार द्वारा दी गई है.... कोई पैसे नहीं है। वाह..... फ्री में ऐसी adventurous ride....ऐसे ही कोई bungee jump भी करवा दो यार...3500 रपीए लेवे हैं छाल मरवान के ऋषिकेश मैं।
ज़ूम करके देखिए....टोकरी दिखेगी आपको।
टोकरी से ऐसी दिखती थी सतलुज।

ये है stress management का तरीका....खुद की फ़ोटो खींचने में व्यस्त होकर रास्ते की मुश्किलों को भूल ही जाते हैं।

          सतलुज पार करने के बाद किन्नौर कैलाश का ट्रैक विधिवत शुरू हो जाता है। शुरू में कुछ सीढियां आती हैं। सीढ़ियों पर अपना कदम रखने से पहले झुककर पहली सीढ़ी को प्रणाम किया, और चल पड़ा ऊपर की ओर। ये सीढ़ियां किसी भी आदमी को सांस चढ़ाने के लिए पर्याप्त ऊंची हैं। किन्नर कैलाश के रास्ते में सबसे पहला और एकमात्र गांव आता है- तंगलिंग। वह भी मुख्य रास्ते में नहीं पड़ता, बल्कि रास्ते से थोड़ा सा हटकर पड़ता है। जहां से तंगलिंग गांव का रास्ता कटता है, वहां तक किन्नौर प्रशासन ने कंकरीट का रास्ता बनवा रखा है। इस कंक्रीट के रास्ते की बजरियाँ बाहर को निकली हुई थी, जो चलने में थोड़ी तकलीफ पैदा कर रही थी।

        किन्नौर क्षेत्र की मुख्य फसल है- सेब। सबसे उत्तम क्वालिटी का सेब अगर आपको कहीं मिलेगा तो वो मिलेगा किन्नौर में। मुझे बाद में पता चला, यहां का 80 प्रतिशत सेब विदेशों में export होता है। ऐसा क्यों होता है, ये भी आपको बताऊंगा, पर इस पोस्ट में नही। तंगलिंग गांव के लोगों ने भी सेब, अखरोट आदि के बाग़ लगा रखे हैं और उन बागों की सिंचाई के लिए तंगलिंग नाले से ही पानी की व्यवस्था की गई है। पहले उस पानी को मोटर के माध्यम से ऊपर खींचा जाता है और फिर गांव में पक्की नालियों द्वारा सप्लाई किया जाता है। जिसे जरूरत हो वो वाल्व हटाये ओर पानी लेले। ये नालियां रास्ते के साथ-साथ भी बनी हुई है। कई जगह ये नालियां टूटी हुई है। उस हिस्से पर पत्थर रखे हुए हैं। लगातार बहते पानी के कारण उन पत्थरों पर काई जमा हो गई है। ऐसे में बहुत सावधानी से चलना आवश्यक है, जैसा मैं कर रहा था।
ये है शुरू का कंक्रीट वाला रास्ता। बाएं कोने में सिंचाई वाली नालियां हैं।
             किन्नौर घाटी के मनोहारी दृश्यों को देखते हुए मैं चल रहा था। बमुश्किल 4 फुट की वह कंक्रीट की गली होगी और उसके एक तरफ में अपने पूरे यौवन पर बहता तंगलिंग नाला, जो दूध की नदी की अनुभूति करा रहा था। एक जगह सेब का एक पेड़ रस्ते पर बिल्कुल झुका हुआ था। मैंने वहां खड़े होकर कुछ आवाजें लगाई, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। तब मैंने अपनी लाठी से दो सेब तोड़ लिए और अपने बैग में रख लिए। आखिर मुश्किल समय में यही खाने के काम आएंगे। रास्ते मे कुछ मजदूर मिले जो पहाड़ के साथ एक दीवार खड़ी कर रहे थे, ताकि गिरते पत्थरों से गांव वालों का बचाव हो सके। उनसे पुल की दूरी पूछी, तो कहा बस भाईजी! ये चढाई पूरी करो, सामने ही पुल है। 5 मिनट लगेंगे आपको बस। वो अलग बात है कि वहां से आधे घण्टे से भी ज्यादा लगा नाले के पुल पर पहुंचने में। खैर, मेरे कौनसा रिश्ते वाले बैठे थे तन्गलिंग नाले पर, जो मेरे को जल्दी होती। अपनी मस्ती में चलता हुआ पहुंच गया मैं नाले पर। वहाँ जाकर देखा तो जो पुल था, वो पुल नही था। तंगलिंग नाले को एक पुल के द्वारा पार करना पड़ता है। अब पुल की गाथा भी सुन लो.....नाले के दोनों ओर किसी पेड़ के दो तने रख दो और उनके ऊपर कुछ पत्थर, बस बन गया पुल। अब ऐसी जगहों पर तो ऐसे ही पुल मिल जाए तो शुक्र है। हाँ, अगर आप सिग्नेचर ब्रिज जैसे कि अपेक्षा कर रहे हैं, तो भाई फिर तो दिल्ली ही रहना पड़ेगा। मैंने देखा कि उस पुल के बीच मे खाली सी जगह थी। शायद, बीच का कोई पत्थर पानी में गिर गया था। वो जगह इतनी थी कि अगर किसी का पैर फंस जाए तो वह नीचे गिर सकता था। जब हम ऐसे रास्तों पर सफर करते हैं तो अपनी सुविधा तो हम देखते हैं पर दूसरों को अनदेखा करके। वो क्या कहते हैं..... अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता। मैंने पास से ही एक पत्थर उठाकर बड़े ध्यान से उस खाली जगह पर रख दिया। अब वो पुल पार करने लायक हो चुका था।
लाल गोले वाला पत्थर मैने ही रखा था। (ऊपर वाला)
             अब थोड़ी जानकारी इस रास्ते के बारे में..... पोवारी, जो किन्नर कैलाश यात्रा का base camp है, वो है 1990 मीटर पर। ओर मलिंग खाटा, जिसे गणेश पार्क या आशिकी पार्क कहते हैं, वो है 3442 मीटर पर। पोवारी में सतलुज पार करने के बाद तीखी चढाई है, जो बाद में सामान्य हो जाती है और फिर उतराई में परिणत हो जाती है। तो मेरे विचार से तंगलिंग नाले का पुल भी 2000 से 2200 मीटर की बीच ही होना चाहिए।
           पुल पार करने के बाद जब मैं दूसरी तरफ गया, तो आराम करने के लिए एक पत्थर पर बैठ गया। तब मेरे मन में एक विचार आया कि अगले तीन-चार दिन तक तो मुझे ऊपर पहाड़ों पर ही रहना है। वहाँ नहाने का कुछ मिले या ना मिले, तो क्यों ना यही नहा कर चला जाए। बस उतारे कपड़े और बैठ गया तंगलिंग नाले के किनारे। अब आप सोच रहे होंगे कि कपड़े उतार कर तो छलाँग मारी जाती है.....मारते हैं भई....पर यहाँ 2 कारण थे ऐसा करने के। पहला तो मुझे तैरना नहीं आता। दूसरा, नाले में पानी भी थोड़ा ही था। मैं बीच मे बैठकर भी नहा सकता था, पर ऐसे नालों का कोई भरोसा नहीं होता। कभी भी इनमें पानी ज्यादा आ जाए और वैसे भी अब तो दिन के 12 बजे के करीब का समय है। धूप के कारण ऊपर ग्लेशियर पिघल रहे होंगे, तो एकदम से पानी का स्तर कभी बढ़ सकता है। इस समय पर किसी भी पहाड़ी नाले में बीच में नहाना समझदारी की बात नहीं होती। तो मैं साइड में बैठ गया और अपने हाथों की अंजुली में पानी भर के नहाने लगा। मनुष्य का रक्त गर्म होता है, पर ये जो ग्लेशियरों का रक्त होता है न दोस्तों, ये इतना ठंडा होता है कि आपकी न करवा दी। किसी तरह नहाया और नहाने के बाद, जो सेब तोड़ रखे थे, उनमें से एक सेब का भक्षण किया, कुछ चित्र खींचे व आगे की तरफ कदम बढ़ा दिए।
नहाने से पहले का चित्र।

हलो फ्रेंडस! सेब खालो.....

          यूं तो आज मैं आप सब के साथ गणेश पार्क तक पहुंचता, लेकिन पिछली पोस्ट में चित्रों की संख्या बहुत अधिक हो गई थी और उनसे संबंधित विवरण बहुत कम। तो कई मित्रों का सुझाव आया था कि या तो मैं चित्र कम करूँ या फिर चित्रों के लिए अलग से एक पोस्ट। अलग से पोस्ट करने से अच्छा मुझे लगा कि बेशक एक पोस्ट में हम कम दूरी तय करें, लेकिन मैं उस दूरी की संपूर्ण जानकारी आपके साथ शेयर करता हुआ चलूं। बस ऐसी ही कोशिश इस पोस्ट में की है। अगर पोवारी से गणेश पार्क तक के महत्वपूर्ण चित्र भी डालूँ तो 117 चित्र बनते हैं। इतने चित्र एक पोस्ट में डालने से ना तो आप ही सुविधा महसूस कर पाएंगे और ना ही मैं। तो इस लेख में इतना ही, अगले में पहुंचेगे गणेश पार्क......
चलो चलें मितवा.....इन टेढ़ी-मेढ़ी राहों पे

तन्गलिंग का रास्ता.....दोनो ओर बाग है कोई सेब का, तो कोई अखरोट का।

नीचे की तरफ बह रहा है तंगलिंग नाला।

वीर तुम बढ़े चलो....धीर तुम बढ़े चलो।

मेरे को ये समझ मे नही आया ये क्या था..... पानी पाइपों द्वारा यहां पहुंचकर वेग से गिराया जाता है(चित्र में देखें)..... ये कोई hydroelectric plant तो नही है???? आपको पता हो तो बताएं जरूर

तन्गलिंग नाला......कहते हैं कि पार्वती कुंड से इसकी उतपत्ति होती है।

कह रहा था न नालियां टूटी हुई मिलती हैं कई जगह...... ये वैसी ही जगह है।

एक सेल्फी
पोवारी से थोड़ा ऊपर आने पर ऐसा नजारा दिखता है।

अगर ऐसा रास्ता मिलता रहे तो बल्ले बल्ले....... वो अलग बात है कि न ऐसा रस्ता मिला और न ही बल्ले बल्ले हुई।

दूर बीच मे जो दिख रही हैं न धवल हिमशिखर...... बस exact वहीं जाना है।

सतलुज घाटी का मनमोहक दृश्य।

आओ दोस्तों, जलपान करते हैं।

पर्वत के पीछे किन्नौर का गांव...... गांव में कुछ सेब रहते थे.....😊😊😊

ये थे वो सेब......zoom करो... मुंह मे पानी आएगा।
बल्ले-बल्ले से कब थल्ले- थल्ले होती है ......पता ही नही चलता।



खैर, पहुँच तो गए नाले पर।

नहाने के बाद.....


Sunday 4 November 2018

चल भोले के पास....चल किन्नर कैलाश.... प्रारंभ(भाग-1)


हर हर महादेव मित्रों,
इस यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
पिछले भाग में आप किन्नर कैलाश जी का भौगोलिक और पौराणिक महत्व पढ़ चुके हैं। अब आते हैं यात्रा पर.....
             आमतौर पर यात्रा का आरंभ होता है तब, जब हम अपना बैग उठाकर एक निश्चित गंतव्य के लिए निकल पड़ते हैं। उस समय से countdown शुरू हो जाता है। यात्रा के लिए आप अपना समय देना शुरू कर देते हैं। पर एक बात बताओ दोस्तों, जो समय आपने किसी स्थान की जानकारी इकट्ठा करने लगाया है, उसका क्या??? समय सारा ही महत्वपूर्ण होता है.... बेशक वो यात्रा में लगा हो या यात्रा की तैयारियों में। तो इसलिए, इस यात्रा का आरंभ होता है मार्च में कई गई आगरा, मथुरा-वृंदावन, गोकुल व फतेहपुर सीकरी की यात्रा करने के कुछ दिनों बाद। पता नही कैसे व कहाँ से मुझे इस स्थान की जानकारी मिली और अचानक से मेरा मन खिंच गया किन्नर कैलाश की तरफ। आप सब जानते ही हैं कि इस यात्रा को कठिनतम यात्राओं की श्रेणी में रखा जाता है। इससे पहले तक मैंने कोई पहाड़ी trek भी नहीं किया था, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों......मैं इसके प्रति उत्सुक हो गया। वो कहते हैं न आपकी क़िस्मत आपको वहां तक पहुंचा ही देती है जहांं उसनेे पहुंचाना है। बस यही मेरे साथ हुआ। किन्नर कैलाश यात्रा की विस्तृत जानकारी इकट्ठा करना चाही तो पता चला कि 2-3 लोगों ने ही इसके बारे में लिखा है बस। सन्दीप पंवार जी का ब्लॉग पढ़ा। फेसबुक पर सर्च किया तो वहां से कुछ-कुछ बातें पता लगनी शुरू हुईं।

गर फिरदौस फेरे जमियस्तो.... हमिंयस्तो, हमिंयस्तो

सपनों को कैसे सच किया....
             फिर एक आईडिया दिमाग मे आया....फेसबुक पर यात्राओं से सम्बंधित एक ग्रुप है ""घुमक्कड़ी दिल से""। मैंने इस ग्रुप में पोस्ट डाल दी कि मैं किन्नर कैलाश जाना चाहता हूं। कोई इच्छुक है तो मेरे नंबर पर कॉल करें। कॉल तो नही पर कई सदस्यों के कॉमेंट्स आए:-
1. पहले कोई ट्रैक किया है क्या भाई?? मत जा...नहीं कर पाएगा।
2. भाई! 6000 मीटर पर है किन्नर कैलाश। oxygen न के बराबर है। मौसम बिगड़ जाता है। पिछले साल इतने लोग मर गए थे। blah....blah...blah...
3. सिर्फ नीचे एक भंडारा लगता है भाई! बीच में कहीं खाने-पीने का इंतजाम नहीं है। 4 दिन तक क्या खाकर जिएगा??? ऊपर से खड़ी चढ़ाई पहाड़ों की....कोई रास्ता नहीं। मत जा भाई....पहले कोई ट्रैक तूने किया नहीं।

          तब दो-तीन दिन बाद एक अनजान नंबर से फोन आया कि मैं रुपिंदर बोल रहा हूं, संगरूर से। हम भी तीन जने किन्नर कैलाश जाएंगे। क्यों ना साथ में चला जाए??
"अंधा क्या चाहे, 2 आंखे। ऊपर से rayban का चश्मा मिल जाये तो क्या कहने".....ठीक है जी। मैं इन तारीखों को सोच रहा हूँ जाने की, आप बता दो अपना....बना लो प्रोग्राम।

            तो मित्रों किन्नर कैलाश यात्रा वैसे तो 1 अगस्त से 15 अगस्त तक आधिकारिक रूप से चलती है पर लोग-बाग 15-20 दिन पहले और बाद तक भी आते-जाते रहते हैं। 23 जुलाई 2017 को चंडीगढ़ में मेरा पेपर था। जब भी आपको शिमला, रामपुर या किन्नौर आदि जाना है, तो चंडीगढ़ से होकर ही जाना पड़ता है। रुपिंदर ओर को भी संगरूर से चंडीगढ़ ही आना था, तो यह तय हुआ कि हम 23 जुलाई की शाम को 6:00 बजे चंडीगढ़ मिलेंगे और वहीं से इकठ्ठे चलेंगे। कुछ दिन तक हम सोचते रहे कि कार में जाएंगे, पर रूपिंदर भाई का एक बंदा जवाब दे गया। कार में तीन लोगों का जाना महंगा पड़ता तो फिर तय हुआ कि बस में चलेंगे।
           यहां आपको एक बात बता देता हूँ। यदि आप किन्नर कैलाश या श्रीखंड कैलाश या शिमला, रामपुर या सांगला घाटी जाना चाहते हैं और वह भी बस में, तो golden idea देता हूँ। चंडीगढ़ से शाम 6:00 बजे और 7:00 बजे दो बसें चलती हैं सीधी रिकांगपिओ की। यूं तो बसें इससे पहले भी हैं, पर वह रामपुर तक जाती हैं, उसके बाद बदलनी पड़ती है। इस समय की बसों का फायदा यह है कि आपकी पूरी रात सफर में कट जाती है। मान लीजिए, आप सुबह वाली किसी बस से जाते हो तो रात 10-11 बजे रेकोंगपिओ पहुंचोगे। फिर वहां कमरा लेना, औसतन ₹500 का कमरा और 1 दिन फालतू, जो अपने बस में लगाया.....मेरे विचार से तो सौदा घाटे का ही है। मैं तो जब भी गया, इसी बस से गया।
           कहां था मैं.... हाँ, जाने से 1 दिन पहले यानि 22 जुलाई को रुपिंदर भाई का फोन आया कि भाई! काम खराब हो गया।
- क्या हो गया भाई??? सब सुख शांति??
हाँ भाई! पर मेरी दुकान पर जो लड़का काम करता है, वह काम छोड़कर चला गया। भाई अब पक्का नहीं पता कब जाना होगा??
 - कोई बात नहीं, भाई जी। कल नहीं चलते। आप बंदा देख लो, आराम से एक-दो दिन में मिल जाएगा।
कोई ना अक्षय पाजी। मैं देखता हूं कोई बंदा।
        तो जी, 22 गई, 23 गई, 24 तो गई ही गई, 25 भी गई। इस बीच रुपिंदर जी से बातचीत होती भी रही। 26 जुलाई को भाई ने फोन पर साफ-साफ कह दिया- अक्षय भाई, हमारा पक्का नहीं बन रहा कि कब जाना होगा। बब्बू की भी छुट्टियों की दिक्कत चल रही है। आप क्यों मेरे कारण लेट हो रहे हो, आप निकल लो।
- नहीं भाई, आप देख लो। इतने दिन से हम बात कर रहे हैं इकठ्ठे जाने की। चल पड़ेंगे एक-दो दिन में।
पर रुपिंदर भाई ने बड़े भाई की तरह ऑर्डर देकर कहा कि अब बहुत हो गया। अब तूने हमारे कारण नही रुकना। तू चला जा। यही होता है अपनत्व और स्नेह.....आप-आप करके बात करने वाला बन्दा अचानक से तू कहने लगा। तब मेरे मन से आवाज आई,  हेराफेरी के बाबूभाई की तरह......तू जा रे पांड्या, मैं तेरे बगैर जी लूंगा रे!!☺☺☺☺

       तो 26 जुलाई को रात वाली बस से मैं जाने के लिए तैयार हो गया। टिकट ऑनलाइन इसी लिए नही करवाई थी कि क्या पता कब जाना हो। तो अब तो सीधा बस स्टैंड से ही टिकट लेनी थी। माताजी पूछने लगे तो कह दिया कि अकेला ही जाऊंगा, चिंता करने की जरूरत नहीं है। पर माँ के मन को कौन समझाए.... कसमें खिलाई गई....कुछ भी हो, सही-सलामत वापिस आना है.... ध्यान से रहियो...जरूरत हो तो 2 रजाई ले लियो...और हाँ! किसी से कुछ लेकर मत खाइयो...जमाना बड़ा खराब है।। माँ.. मेरी माँ.... अब तुझे सच बताया तो तू जाने नही देगी। आके बताऊंगा सब कुछ। असल मे चिंता तो मुझे भी थी। यह यात्रा मुश्किल ही बहुत है। अकेले इसे करना कितना कठिन काम है, यह सिर्फ वही जान सकते हैं, जिन्होंने इस स्तर का कोई ट्रैक किया हो। श्री केदारनाथ व अमरनाथ यात्रा को लोग मुश्किल कहते हैं पर दोस्तो, इनकी चढ़ाई किन्नर कैलाश के 5% के बराबर भी मुश्किल नहीं है। नहीं यकीन होगा आपको.....मुझे भी नहीं था। जब वहां गया तो पता लगा।
चंडीगढ़ से यात्रा के बेस कैम्प पोवारी तक

            खैर, 40 रुपये की टिकट मेरे दूसरे घर लालड़ू से चंडीगढ़ सेक्टर 17 की लगती है। एक बात और, चंडीगढ़ जाने वाली अधिकतर बसें जाती हैं सेक्टर 17 में। शिमला आदि की बसें जो है, वो मिलती है सेक्टर 43 से। इसलिए जाने से पहले यह पता करके जाएं। कहीं बैठे रहो सेक्टर 17 में और बस निकल जाए। किसान भवन उतरा और 43 का ऑटो लिया। 10 मिनट ओर 20 रुपये में मैं सेक्टर 43 पहुंच गया। जाकर पूछा तो 6:00 बजे वाली बस 10 मिनट में पहुंचने वाली थी, पर सीट नहीं थी। तुरंत पैर 7:00 बजे वाली बस की विंडो सीट बुक कर ली। बस थी रेकोंगपिओ की पर अपन को तो पोवारी जाना था। कुल ₹500 की  टिकट लगी। अब इत्मीनान से बेंच पर बैठकर 7 बजे का इंतजार करने लगा। मेरी फितरत है कि कोई मेरे पास बैठा होता है तो मैं बातचीत शुरू कर लेता हूँ। यहीं पर बने एक मित्र B.S. NEGI, जो हिमाचल में रोहड़ू के रहने वाले हैं। श्रीखंड यात्रा में उनसे मिलना प्रस्तावित था, पर वो आ नही पाए। खैर, 7 बजे वाली बस लग गई और मैं अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। कुछ समय बाद स्कूली लड़कियों की एक टोली आयी, जो चंडीगढ़ में किसी sports event के लिए आईं थी।
मैं फोन पर अपने डैडी जी(ताऊ जी) को बस में बैठने की जानकारी दे रहा था, अचानक से उनकी आवाज़ किसी महिला जैसी हो गयी। चलती बात में अचानक से वो मीठी सी आवाज़ में EXCUSE ME कहने लगे.....ये क्या हुआ...कैसे हुआ.... तब एक हाथ ने मुझे छुआ। देखा तो लड़कियों की टोली की हेड टीचर थी। जैसे ही मैने उन्हें देखा तुरन्त उन्होंने मुझसे आग्रह किया, बिल्कुल मीठी सी आवाज में, " Can I Have The Window Seat, Please??"
और मैंने उतनी ही rude आवाज़ में उत्तर दिया," No, You Can't". और मैडम जी ने मुझे इस तरह से देखा जैसे पता नहीं मैंने उनका क्या छीन लिया हो। अरे भई, विंडो सीट के लिए 2 घंटे पहले मैं चंडीगढ़ आया हूं। अगर तुझे देदी, तो वादियों के नजारे कौन देखेगा और वैसे भी जुलाई का महीना है....पसीने से नहाया पड़ा हूँ....जो pepsi खुद पी रही है, वो मुझे ऑफर करने की बजाय मुझ ही से सीट मांग रही है। खैर, बस चल पड़ी। 8 बजे के करीब हमारी बस चंडीगढ़ के बाद पर्वतीय क्षेत्र में प्रवेश कर गई। यह बस सोलन से थोडा पहले धर्मपुर में एक ढाबे पर खाने के लिए रूकती है। अरे कमाल करते हो.....बस नहीं खाती भई....यात्री खाना खाते हैं। पर मैं तो घर से पूरी और आलू की सूखी सब्जी लेकर चला था। अपन ने तो बस में वही निपटा दी।
विभिन्न स्थानों व यात्राओ से सम्बंधित जानकारी लेने व चित्र देखने के लिए मेरे fb पेज पर लाइक कर सकते हैं।
सेक्टर 43 बस स्टैंड पर मैं।


रात में सोलन। चलती बस से खींचा चित्र।

बैठे बैठे क्या करें, करना है कुछ काम।
चलो खींचे फ़ोटो, लेके भोले का नाम।।
       लगभग आधे घंटे बाद बस दोबारा चल पड़ी। दिन में मुझे बस में कभी नींद नही आती, रात में कभी आ जाती है तो कभी नहीं आती। सोलन पार हो गया। सोलन के बाद मैं आंख बंद करके सोने की कोशिश करने लगा तो अचानक से मेरे कंधे पर कुछ गिरा। देखा, तो मीठी आवाज वाली मैडम और मेरे बीच में 17-18 साल की लड़की बैठी थी। सोते समय उसका सिर आ गया मेरे कंधे पर। मुझे काटो तो खून नहीं....  क्या करूं रे बाबा......रुपिंदर भाई इसीलिए मैं चाहता था कि तुम लोग मेरे साथ चलो.....
         काफी जद्दोजहद के बाद उन मोहतरमा का सिर मैंने उठाया, पर फिर एहसास हुआ कि मैं व्यर्थ ही यह प्रयास कर रहा हूं। उसका सिर बार-बार मेरे कंधे पर आ जाता था। ऐसे में मैं जागता ही रहा। शिमला आने से पहले हालत यह हो गई कि मुझे खिड़की बंद करनी पड़ी। जुलाई में शिमला में रात में रजाई ओढनी पड़ जाती है और चलती बस में तो वैसे ही हवा के कारण ठंड ज्यादा लगती है। लगभग पौने 12 बजे बस शिमला पहुंची। मैं खड़ा हुआ, अपने बैग में से अपनी जैकेट निकाली और टीशर्ट के ऊपर ही डाल ली। Collor वाली टीशर्ट और ऊपर जैकेट, कंबीनेशन तो नहीं था, पर अपन कौन सा रिश्ता करवाने जा रेला है। लगे हाथ गिरते सिर वाली लड़की को भी सिर संभालने को कहा और सोने की कोशिश करने लगा। शिमला में ऐसी आंख मीची कि फिर तो सुबह रामपुर जाकर ही आंख खोली। हाँ, इस बीच में कंधे पर surgical strike होती रही, नींद आती-जाती रही, पर मैंने आंख नही खोली।
कदम जो चले हैं तो अब ना रुकेंगे। 

चाहे लाख आएं बाधाएं, हम ना रुकेंगे...हम न रुकेंगे।
कॉलर वाली टीशर्ट ओर जैकेट.....नही है न कॉम्बिनेशन???


ये थी वो नई-नवेली बस।


         रामपुर बुशहर आकर एकदम से कंडक्टर की आवाज आई.....पिओ जाने वाले दूसरी बस में बैठ जाओ। अब खटारा बस का स्थान नई नवेली बस ने ले लिया। मैं तो छोड़ चली बाबुल का देस....पिया का घर प्यारा लगे। अरे भई.... ड्राइवर की सीट के पास एक शादी वाला चूड़ा टँगा था, ओर ये लिख रखा था। रामपुर से निकलकर उजाला होने लगा था। इस बस में मुझे खिड़की वाली सीट नहीं मिली, इसका दुख था। रात को सीट के लालच में मीठी आवाज वाली मैडम को कड़वा भी किया....पर क्या फायदा। रामपुर से 12 किलोमीटर दूर एक गांव है ज्यूरी और बस ज्यूरी में मुझे मिला JOY. मीठी आवाज वाली मैडम और उसका ग्रुप वहाँ उतर गया, पर मुझे जगह नही मिली। एक सीट पर 50-52 की उम्र के एक अंकल बैठे हुए थे। मैंने उनसे पूछा,"अंकल जी! आप यही के लोकल हो क्या?"
=हाँ बेटा! क्या हुआ?
अंकल जी, मैं हरियाणा से आया हूँ। मेरे पास विंडो सीट थी, पर जब रामपुर में बस की बदली हुई, तो नही मिली। वहीं के बाद सुबह हुई है। मुझे पहाड़ी नजारों की फोटो लेनी है। क्या आप मुझे अपनी सीट दे सकते हैं??
और अंकल ने कोई जवाब नहीं दिया। मुझे उम्मीद थी कि उठ जाएंगे, पर उन्होंने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। अंकल जी बिना उठे ही सरके और मुस्कुरा कर अपनी सीट मुझे दे दी। बस फिर तो अंकल जी से बातचीत का दौर शुरू हो गया। उन्हें रिकांग पिओ जाना था। हम बातें करते गए और बीच मे आया किन्नौर का प्रवेश द्वार..... एक ऐसी संकरी सड़क जिस पर एक समय में केवल एक ही वाहन चल सकता है। उस सड़क पर पहाड़ को काटकर बनाई गई गुफानुमा सड़क। पक्का तो नहीं कह सकता लेकिन इस सड़क को विश्व की कुछ कठिनतम व जानलेवा सड़कों में से एक माना जाता है। इसे पार करने के कुछ देर बाद बस ने ब्रेक मारे टापरी बस स्टॉप पर..... चाय नाश्ते के लिए। और हां.....अब की बार भी चाय-नाश्ता बस को नहीं यात्रियों को करना था। यहां मैं बस से उतरा और ब्रश किया। बिना ब्रश किए तो मैं पानी भी नहीं पी सकता। ब्रश किया और बैठ गया बस में। टापरी के बाद आता है करछम डैम। रामपुर से रेकोंगपिओ तक सतलुज पर 2 डैम बने हैं। यहां की lifeline है सतलुज और मेरे लिए जिज्ञासा का विषय। श्रीखण्ड यात्रा में, पता नही क्यों, पर सतलुज से मेरा प्रेम का नाता से जुड़ गया। अभी जानकारी जुटा रहा हूँ। सम्भवतः इस यात्रा वृत्तांत के बाद सतलुज पर भी एक विस्तृत लेख लिखा जाए। खैर, बस यूं ही लहराती बलखाती नागिन जैसी सड़क पर चल रही थी। अचानक से बस की आवाज बन्द हो गयी, पर आश्चर्य... बस अपनी गति में ही चल रही थी। अरे रे! घबराइए मत, बस की आवाज़ सतलुज की आवाज़ में दब गई थी। कई जगह ऐसा होता कि सतलुज सिंहनाद करते हुए अपने रौद्र रूप में बहती, तो बस की आवाज़ उसके सामने कहीं भी नही टिकती।
ये नजारे आम बात है यहाँ।
प्रवेश द्वार से निकलती हमारी बस।

आधिकारिक रूप से तो किन्नौर पहले ही शुरू हो जाता है। पर किन्नौर का प्रवेश द्वार इसे ही कहा जाता है।

उस समय सूर्योदय हुआ हुआ सा ही था, और सूर्यदेव बदलो के पीछे थे।

संकरा रास्ता है.... हमारी बस रुकी खड़ी है। पहले वो ट्रक आएगा...जाएगा...तब हमारी बस जाएगी।

एक ओर।
          इसी तरह खुद भी नजारे देखती व दूसरों को भी दिखाती हुई बस पहुंच गई, तंगलिंग पुल। माधवानंद अंकल, वही बस वाले, उन्होंने कंडक्टर को पहले ही बोल दिया कि मुझे भंडारे पर उतारे, अन्यथा स्टॉपेज डेढ़ किलोमीटर पहले है। पर हिमाचल की साधारण बसों में आप जहां भी कहोगे, वहाँ आपको उतार दिया जाता है। उतर कर मैंने भंडारे में प्रवेश किया तो "जय शंकर"के गगनभेदी उद्घोष ने मेरा स्वागत किया। प्रत्युत्तर में मैंने भी हर हर महादेव कहा। असल मे एक ग्रुप किन्नर कैलाश जा ही रहा था। जाते ही अपना बैग रखा और फोन को चार्जिंग पर लगाया।
आप सोच रहे होंगे कि इस लेख में क्या है खास..... सब जाते ही हैं बसों में, ट्रेनों में, बाइक पर, अन्य साधनों से। पर दोस्तो, सफर की यही खट्टी-मीठी यादें ही उसे सफर बनाती हैं। ऐसे सफर में कई बार जीवन भर के दोस्त बन जाते हैं....मेरे तो बनते हैं भई. ..आपके भी बनते ही होंगे। खैर, अब तो पोवारी पहुंच ही गए हैं... अगले लेख में चढाई शुरू कर देंगे भोले का नाम लेकर। तब यक आप रास्ते के फोटो देखो...आपकी शिकायत थी कि मैं मेरे फ़ोटो ज्यादा लगाता हूँ। पहले मैं घुमक्कड़ नही था, अब हो गया हूँ। उस बदलाव को आप फोटोज में देख पाएंगे.... सभी फ़ोटो चलती बस में से ही ली गयी हैं।
क्रमशः
पिछले लेख पढ़ने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें:-


रामपुर की मस्तानी सुबह
झाकड़ी में भारतीय सेना का mountain guide camp है, शायद छोटी छावनी थी। बहुत से जवान रास्ते मे दौड़ भी लगा रहे थे।



जिस प्रकार से शरीर मे नसें काम करती हैं न, उसी तरह पहाड़ में ये बसे काम करती हैं।

यही तो कमजोरी है मेरी, जो घुमक्कड़ी में पहली प्राथमिकता पहाड़ो को देती हैं।

फोटो को ज़ूम करो, बिल्कुल बाएं कोने में कुछ घर दिखेंगे। गांव का नाम तो मालूम नही, पर वहां जाना कितना खतरनाक होगा ये फोटो में दिख जाएगा।

धन्य देश महान, धन्य हिंदुस्तान

ऐसे अनगिनत पुल आते हैं रास्ते मे

इसे देखकर क्या अनुभूति हो रही है???

किन्नौर गेटवे के पास बारिश हो रही थी। कटी हुई चट्टान से ऐसे टपक रहा था पानी।

झरना तो दिख ही रहा होगा। यहां तो चले जाएं तो बात बन जाएं।

गेटवे ऑफ किन्नौर से निकलती हुई बस

मेरा प्यार बन चुकी है तू सतलुज

मैं तो निःशब्द हूँ। आओ कुछ कह सके इसकी सुंदरता के बारे में तो वाह वाह


ये भी रास्ते मे एक dam बनाया गया था। यहां पानी के भाव मे बस की आवाज़ दब सी गयी थी।

किसी छोटे पर्वतीय नाले का सतलुज में संगम। ये ही तो सतलुज तो एक नद बनाती हैं।



बादलों के देस में

अब चलते हैं किन्नौर प्रदेश में
तरण्डा ढांक में प्रसिद्ध देवी तरण्डा माता का मंदिर।

क्या पुल है....वाह

इतना चौड़ा पट है सतलुज का यहां....अथाह जलराशि समाहित है सतलुज में।

सतलुज से मिलन को लालायित एक नाला।

आ गया मैं तेरी ओर.... प्रेम में यही होता है। जब तक स्वयं का अस्तित्व न भूले तो क्या खाक प्रेम किया.....जैसे ये नाला अपनी सफेद सुंदरता छोड़कर अब मटमैला हो जाएगा।

टापरी में आदरणीय माधवानन्द अंकल के साथ।

और ये टापरी में मैं।

रास्ते के ऐसे पहाड़ मुझे बहुत आकर्षक लगते हैं। इसपे चढाई करने का बड़ा दिला था मेरा।

पुल से पहले लगा चेतावनी पट्ट।

एक समय पर पुल पर केवल एक ही वाहन चल सकता है। अब हमारी बस चल रही है।

देखो सतलुज का रौद्र रूप..... ये तो होगा ही आखिर महादेव की धरती से आई है ये नदियों की रानी।

ये आ गया हिमाचल के लद्दाख।

अब यहाँ हमारी बस प्रतीक्षा में है.... वो सब निकलेगी तो हमारी जाएगी।

ओर ये हम भी चल पड़े।

ये शांत दिख रही है..पर है नही.......#शैतान सतलुज।

सड़क निर्माण का कार्य यहां युध्स्थिति पर है। एक तो सांगला का बढ़ता पर्यटन दूसरा चीन की सीमा से नजदीकी..अब तो रॉड बनेगा ही।

बोर्ड पढ़ें।

देख! मेरा प्रेम...अपना वक्ष फाड़कर तुझे रास्ता दे रहा हूँ मैं
ये पहाड़ मुझे ये कहता प्रतीत हो रहा था।


पहुंच गए पोवारी......इन्ही पहाड़ो की ओर चलो, 10-12 पहाड़ पर करो....पहुंच जाओगे किन्नर कैलाश।

पोवारी में भी सतलुज का एकछत्र राज चलता है।

भंडारे के सामने सड़क पर मैं।

किन्नर कैलाश यात्रिओ के लिए लगाया जाने वाला भंडारा। इस चित्र का वर्णन अगले लेख में करेंगे।