Don’t listen to stories, tell the stories

Sunday 30 September 2018

जीत कर भी मिली हार....यही है चूड़धार... अंतिम भाग


दिनांक- 6 फरवरी 2017
गतांक से आगे..
                 पंजीरी की लिफाफा खोला ही था कि अचानक से.......भालू की आवाज सुनाई पड़ी। ये स्पष्ट था कि भालू ही था। ऐसे घनघोर जंगल में जहाँ आपके पैरों से दबती पत्तियों की आवाज़, तेज चलने के कारण बढ़ी हुई दिल की धड़कन, पत्थरों से रिसते हुए पानी की आवाज को आप आराम से सुन पाते हों तो ऐसे में भालू की आवाज को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। उसके चिंघाड़ने की आवाज़ से लगा कि भालू ज्यादा दूर नही है। मैंने पंजीरी का लिफाफा वापस बैग में रख दिया। अरे हाँ! पिछले लेख के बाद कई मित्रों ने पर्सनल मैसेज भेजकर पूछा था कि ये पंजीरी क्या होती है? तो दोस्तों, हरियाणा में इसे मोई कहा जाता है। गेहूं के आटे को देसी घी में भूना जाता है और फिर अपनी सुविधानुसार उसमें काजू, बादाम, किशमिश, मखाने आदि डाले जाते हैं। हरियाणा पंजाब में जब किसी महिला को बच्चा होता है तो उसके मायके की ओर से अपनी बेटी के लिए यह भेंट के रूप में भेजा जाता है ताकि वह प्रसव के बाद स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सके। जो मेरी पंजीरी थी उसमें भी मेवे पड़े थे। मैं नहीं चाहता था कि मैं खाऊं और उसको सूंघता हुआ भालू मेरे पास आ जाए और मुझे फाड़कर पंजीरी वाले मेवे वो खा जाए। अरे भई! मेरी मां ने मेरे लिए पंजीरी बनाई है, तेरे लिए लिए थोड़ी न?? शास्त्रों में इसे ही मोह कहा गया है....
बाएं कोने में बर्फ से ढंकी जो चोटियाँ हैं, उनमे सबसे ऊँची हैं चूड़धार।
                   हिमालय, खासकर कि 2 से 3000 मीटर के किसी भी जंगल में ट्रेक करते समय आपका सामना भालू से हो सकता है। ऐसे में भालूओं के बारे में 2 बातें ध्यान में रखनी आवश्यक हैं। एक तो उसकी सूंघने की शक्ति बहुत तेज होती है। दूसरी कि वह व्यक्तियों के  झुंड पर हमला नहीं करते। भालू जंगली जानवर बेशक हो पर आदमी से डरता है। जंगल से गुजरते वक्त बेहतर होगा कि आप तेज आवाज में गाना बजाते हुए चलें। अगर ग्रुप में हैं तो थोड़ी तेज आवाज में बातचीत करते हुए चलना बेहतर रहेगा। सुना तो ये भी है कि भालू मरे हुए जानवर या आदमी को नहीं खाते, खुद ही शिकार करते हैं। पर ना तो मैं अपनी सुगंध खत्म कर सकता हूँ, ना ही मैं ग्रुप में हूँ और ना ही मैं मरने की एक्टिंग कर सकता हूँ। अरे, तो मैं कर क्या सकता हूँ?? मैं पंजीरी खाते-खाते सोच सकता हूँ। नहीं, पंजीरी भी नहीं खानी... सिर्फ सोचना है कि क्या करना चाहिए....
जंगल मे कहीं कहीं ऐसे पेड़ भी है, जो आपके सिर के बिल्कुल करीब आ जाते हैं।



तब मेरे मन में विचार आया कि अक्षय! तू इस समय मानवों की बसाहट से 7-8 किलोमीटर दूर बियाबान जंगल में है। इस सीजन में ऊपर कोई आता भी नहीं। या तो तू आया है या फिर यह भालू-तेंदुए। ऐसे में यदि कोई भालू तुझ पर हमला कर दे तो तू क्या करेगा... कुछ भी तो नहीं। उसका तो 1 दिन का लंच और डिनर हो जाएगा, उसकी फैमिली के लिए पिकनिक हो जायेगा। पर तू तो जान से जाएगा न। तिवारी को तो जगहों के नाम भी नहीं पता कि वह जाकर घर वालों को बुला लाए। घर वाले भी आकर क्या कर लेंगे। भाई, अब बहुत हो गयी trekking.... जीवन से बढ़कर कुछ भी नहीं। फिर आ जाएंगे कभी। ऐसा मन में विचार आया और मेरे जूते 180 डिग्री पर घूम गए। क्या..क्या..क्या...clockwise या anti-clockwise.....अरे भाई, जैसे मर्जी घुमा लो।
 दिल तो नही कर रहा था वापिस जाने का पर आगे जाने का मतलब था दोधारी तलवार पर चलना..... आगे बर्फ बढ़ती जाएगी...उसका खतरा। दूसरा, अपने ये भालू साहब.....
#लौट कर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ।
जब मैं वापिस आ रहा था, तो देखा ट्रेक का ये हिस्सा.... चूड़धार के ट्रेक में ऐसा रास्ता आम है।

अब जब अपने कदम नीचे की तरफ बढ़ा ही लिए थे और चलते-चलते 15 मिनट भी हो गए थे तो भूख का अहसास दोबारा शुरू हुआ। पंजीरी की याद आई, पर काजू बचाने के मोह ने पैकेट को बैग से बाहर ही नहीं आने दिया। उसी घर के पास आ गया जहां से बोतल ली थी। अरे वही पानी वाली बोतल। तो वो ताऊ जी बोले.. क्या बात बेटा आ गए... कहां तक गए??
क्या बताऊँ ताऊ जी! घना जंगल था। पता नहीं कहां तक पहुंचा..... तब मैंने उन्हें वहाँ से वापिस मुड़ने का समय बताया। ताऊ जी ने थोड़ी देर शून्य में ताका। NASA वालों की तरह कुछ कैलकुलेशन करके कहा कि बेटा! 10-15 मिनट और चलते तो बर्फ दिख जाती।
 दिख तो जाती ताऊजी, पर मेरी आंखें शायद ही रहती। मुझे भालू की आवाज सुनाई दी थी, इसलिए आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की।
 ठीक किया बेटा! इस मौसम में भालू हमला करते हैं। जब लोग आते-जाते रहते हैं तो वह दूर जंगलों में चले जाते हैं, पर इस टाइम यह पूरा जंगल उनका है।
 चलो कोई नहीं ताऊ जी! फिर कभी आऊंगा।
अरे बेटा रुको यहां डॉक्टर आए हैं। अभी नीचे जाएंगे। तुम भी उन के साथ निकल लेना....टाइम पास हो जाएगा।

बस थोड़ी देर में ताऊ का बताया हुआ टाइमपास बाड़े से बाहर निकला। अपनी फीस ली और मेरे से रूबरू हुआ। हम चल पड़े बातें करते-करते। बातचीत पर पता चला कि पहले वह हमारे कैथल से ट्रक में आलू लेकर आते रहे हैं। बस फिर तो नोहराधार तक मैं उनका टाइम पास और वो मेरे टाइम पास।
ताऊ के घर से कुछ बाद ऐसा सीढ़ीनुमा रास्ता है।

नोहराधार आया देखा कि जिस डोरमेट्री में हम रुके हुए थे, उस पर तो ताला लगा था। मोटरसाइकिल यथावत अपने स्थान पर खड़ी थी। मैं गया चौहान जी के पास। बैठा, पानी पिया, तिवारी का फोन किया। जुलमी नाई के पास गया था दाढ़ी सेट करवाने।
भाई, जल्दी आजा। खाना खाकर  निकलते हैं।
आज ही निकलना है क्या बाबू?तो आज यहां क्या करना है भाई?
 तुम खाना खाओ बाबू, हम आते हैं थोड़ी देर में।
(मुझे बिहार वाले मित्रों का यह बाबू सम्बोधन बड़ा अच्छा लगता है।)
                अब यह बताने की क्या जरूरत है कि खाने में कढ़ी-चावल, उड़द की दाल, आलू की सूखी सब्जी, प्याज-मूली का सलाद और भरपेट रोटी थी, वह भी सिर्फ 60 रुपये में। तब तक तिवारी भी आ गया। उसने भी खाया और हम नोहराधार का बाजार घूमने निकल पड़े।
 नोहराधार एक कस्बा है सिरमौर जिले का। वहां का बाजार हिमाचली वस्त्रों से भरा पड़ा है। घूमते-घूमते मेरे मन में आया कि क्यों ना एक हिमाचली टोपी ली जाए। टोपी लेने के लिए एक दुकान में चला गया। उस दुकान का संचालन एक महिला कर रही थी और वहां उनके कुछ रिश्तेदार आए हुए बैठे थे। जब मैं उनसे बोला कि मुझे हिमाचली टोपी लेनी है।
कौन सी टोपी दूं बेटा??
माता जी! हिमाचल वाली चाहिए।
वही तो पूछ रही हूँ बेटा... हिमाचली टोपी कौन सी चाहिए...बीजेपी वाली या कांग्रेस वाली??
आप भी सोच रहे होंगे कि अब यह क्या लफड़ा है...तो सुनिए बीजेपी वाले टोपी में मेहरून रंग की पट्टी होगी और कांग्रेस वाली टोपी में हरे रंग की पट्टी होगी। मैंने दोनों टोपी सिर पर लगा कर देखी। मुझे हरी पट्टी वाली ज्यादा अच्छी लगी और रंगों की राजनीति से ऊपर उठकर मैंने वही हरे रंग की पट्टी वाली टोपी ले ली। वो टोपी लेकर हम वापिस अपने कमरे में आए, अपना बैग वगैरह दोबारा सेट किया और भोलेनाथ से वायदा लिया कि दोबारा आऊं तो यूँ खाली हाथ न भेजना।
ये है वो कोंग्रेस वाली टोपी। जहाँ इसमे हरा रंग है, वहीं अगर महरून होता तो ये bjp की टोपी हो जाती।
               ततपश्चात लगभग 2 बजे हम निकल पड़े अपने घर की ओर। जब मैं चौहान साहब के ढाबे पर खाना खा रहा था तो उनसे थोड़ी बातचीत हुई थी। उसमे मुझे ज्ञात हुआ कि वापसी में हरिपुरधार जाने की जरूरत नहीं है। नोहराधार से सीधा संगड़ाह भी जाया जा सकता है और वो रास्ता लगभग 25-30 किलोमीटर छोटा पड़ेगा। अंधा क्या चाहे 2 आंखें....हमें 2 आंख तो मिली पर एक आंख में मोतिया हो रखा था... मतलब उस रास्ते मे 4-5 किलोमीटर का रास्ता थोड़ा टूटा-फूटा आएगा। ये जानने के बाद भी हमने फैसला लिया कि अबकी बार हम हरिपुरधार को bypass करके सीधा संगड़ाह निकलेंगे। चलो आपको एक बात बताता हूँ -नोहराधार से हरिपुरधार 34 किलोमीटर है और हरिपुरधार से संगड़ाह लगभग 22 किलोमीटर। तो कुल मिलाकर नोहराधार से संगड़ाह हुआ 56 किलोमीटर। जबकि नोहराधार से अगर आप सीधे संगड़ाह निकलते हो, लोकल लोगों के बताए रास्ते से जो देव मनाल और भराडी गांव से होकर जाता है तो नोहराधार से संगड़ाह मात्र 27 किलोमीटर पड़ेगा यानी कि आप सीधे-सीधे 27-28 किलोमीटर बचा सकते हो। पहाड़ों में 27 किलोमीटर बचने का मतलब आपका एक से डेढ़ घंटा बचना है।
नीले रंग का रास्ता नोहराधार से हरिपुरधार होते हुए संगड़ाह जाता है, जबकि हल्के पीले रंग का रास्ता सीधा ही संगड़ाह। हमने यही चुना था।

हमने भी यही किया और हम निकल पड़े उसी रास्ते से। शुरू के 5-7 किलोमीटर हमें बहुत अच्छा रास्ता मिला। बढ़िया 2 लेन सड़क बनी हुई थी और बिल्कुल खाली, लेकिन जैसे ही हमने एक गांव क्रॉस किया तो उतराई शुरू हो गई और बहुत ही तीखी उतराई। यहीं से वो टूटी हुई सड़क भी शुरू हुई। बस फिर तो पिछवाड़े का जो बैंड बजना शुरू हुआ, वो अगले 7-8 किलोमीटर तक अलग-अलग गाने बजाता रहा। सड़क के इस टूटे हुए टुकड़े ने हमे बहुत तंग किया। एक जगह हम बाइक को थोड़ा आराम दे रहे थे तो नाक की सीध में हमे संगड़ाह दिखाई दिया, लेकिन जैसे लेह में गाटा लूप्स हैं, वैसे ही यहां पर लूप्स बने हुए थे। बिल्कुल सीधी चढ़ाई। हमारी बाइक पहले गियर में चढ़ रही थी और उसमें भी वह बहुत जोर मांग रही थी। ऐसे में  मैंने तिवारी को कहा कि तिवारी अब मैं थोड़ी देर पैदल चलता हूं और तू बाइक को ठंडी करके फिर लेकर आ। ऐसा कहकर मैं अपना बैग उठाकर चल पड़ा। लगभग 2 किलोमीटर चलने के बाद सड़क पर बैठ गया और तिवारी आया। उसके बाद हम फिर बाइक पर बैठकर चलने लगे लेकिन उस सीधी चढाई वाले रास्ते पर बाइक बिल्कुल जवाब दे रही थी। तब मैं पहले की तरह ही पैदल चलने लगा। मैं आधा किलोमीटर ही गया था कि मुझे ट्रैक्टर दिखा जो खाई में पत्थर गिरा रहा था। मैंने उनसे पूछा कि आप कहाँ तक जाओगे तो उसने कहा कि भाई मैं संगड़ाह से आधा किलोमीटर पहले तक जाऊंगा। मेरे निवेदन करने पर उसने मुझे बैठा लिया और मैं ट्रैक्टर पर बैठकर संगड़ाह की तरफ निकल पड़ा। तिवारी को मैंने फोन करके बोल दिया था कि संगड़ाह में मिलते हैं। ट्रैक्टर वाले भाई ने संगड़ाह से लगभग 1.5 किलोमीटर पहले मुझे उतार दिया और वहाँ से मैं पैदल ही संगड़ाह पहुंच गया।
दूर कोने में देखिए ज़ूम करने के बाद। आपको चींटी के आकार का कुछ दिखेगा, वो हमारी बाइक है। जब बाइक ऊपर नही चढ़ रही थी तो मैं पैदल ही यहां तक आया था और ये फोटो खींची थी।
ट्रेक्टर पर संगड़ाह तक कि लिफ्ट मांग कर जब बैठा था।

             संगड़ाह पहुंच कर उसी दुकान पर चाय पी, बिस्कुट खाये और 10 मिनट का आराम लेकर फिर निकल पड़े। रेणुका जी तक सड़क ठीक-ठाक ही है, पर रेणुका जी के बाद सड़क एकदम टिप-टॉप बनी है। अच्छा खासा अंधेरा हो गया था जब हम नाहन पहुंचे। नाहन पहुंच कर एक-एक प्लेट गर्म टिक्की खाई और चल पड़े नारायणगढ की ओर। नारायणगढ से अम्बाला ओर फिर जब अम्बाला से लालड़ू जाने लगे तो तिवारी बाबू ने बाइक एक ठेके पर रोक दी। कोई दारू ली और बैठ गया पीने... पूछने पर जवाब मिला- बाबू! हम थके हुए हैं बहुत।
अरे भाई! घर 10 किलोमीटर रह गया है बस। घर पहुंच, आराम से कमरे में लेट, बढ़िया नींद ले और थकावट दूर कर।
नही बाबू! हम तो पियेंगे और तभी जाएंगे।

             बस उसके बाद मेरे साथ भी कसमें-वादे वाले षड्यंत्र हुए, भाई के प्यार की दुहाई दी गयी, दोस्ती तोड़ने की धमकी भी मिली, पर मैं उसके सामने के बेंच पर बिना पिये बैठा रहा। वो पेग लगाता रहा और मैं उसके चना-मसाला में सेंध लगाता रहा। जब उसका प्रोग्राम हो गया तो पास के होटल पर डिनर करके हम घर गए। इस तरह से इस अधूरी यात्रा का समापन हुआ। अब शायद आप समझ गए होंगे कि इस लेख का शीर्षक जीत कर भी मिली हार क्यों है। जीत मिल चुकी थी जब चूड़धार की तरफ जब कदम बढ़े। पर हार तब मिली जब बिना मंजिल तक पहुँचे वापिस होना पड़ा। यहाँ जाट देवता का वो कथन याद आ जाता है घुमक्कड़ी किस्मत से मिलती है........किस्मत में नही था तो वापिस होना पड़ा। खैर, कई बार हार जीत से अधिक महत्व रखती है। खासकर, जब प्रश्न जीवन और मृत्य का हो। रावण सीता-हरण के बावजूद भी अगर अपना अहं छोड़कर हार मान लेता, तो उसका जीवन बच जाता। व्यर्थ का अहंकार जीवन के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। प्रत्येक घुमक्कड़ को यही बात ध्यान में रख कर यात्रा करनी चाहिए।
एक पत्थर पर कैमरा रखो। 10 सेकंड का timer लगाओ और बैठ जाओ पोज़ में। ऐसी फ़ोटो आ जायेगी।

ये ऊबड़-खाबड़ रास्ते।

ऐसे ऐसे बोर्ड रास्ते मे पेड़ो ओर लगा रखे हैं। एक नीचे गिरा हुआ था.... मैंने उठाकर लगाना चाहा वापिस, पर वहाँ कोई कील नही थी।

इसके लिए भी timer वाला मॉड चलेगा।

अब अंत मे इस यात्रा से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें मैं आपको बता देता हूँ:-
1. चूड़धार यात्रा का बेस कैम्प नोहराधार है, जहां तक सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। पहला तो वही रास्ता जहां से हम गए, पर वो रास्ता बाइक के लिए उपयुक्त है। यदि आप कार से जाना चाहते हैं तो चंडीगढ़ होते हुए शिमला वाले रास्ते पर सोलन पहुंचिए और वहां से राजगढ़ होते हुए नोहराधार। जो बन्धु बस आदि द्वारा जाना चाहते हैं, उनके लिए भी सोलन वाला मार्ग उपयुक्त है।
2. चूड़धार चोटी बाह्य हिमालय, जिसे शिवालिक पर्वतमाला भी कहा जाता है, उसकी सबसे ऊंची चोटी है। यह लगभग 3640 मीटर की ऊंचाई पर है। मैदानी लोगो के लिए यह ऊंचाई बहुत होती है। अतः आप यहां सर्दियों में न जाएं क्योंकि भयंकर बर्फबारी होती है। यहां के लिए मई से सितंबर के समय सबसे उचित है।
3. रात रुकने के लिए टेंट आदि की कोई आवश्यकता नही है। भोले के धाम में ऊपर शिरगुल धर्मशाला निर्मित है, जिसमे आप कम्बल का किराया देकर रुक सकते हैं।
4. बस से जाने वाले यात्री ध्यान दें कि नाहन से नोहराधार की सीधी 2 बस हैं, जो सुबह 6:30 और 8:10 पर चलती हैं। इसके विपरीत यदि आप सोलन वाले रास्ते से जाते हैं तो बसों की कोई कमी नही होगी।
5. नोहराधार में रुकने के लिए बजट होटल भी उपलब्ध हैं और डोरमेट्री भी। जिस जगह हम रुके थे, वहां डोरमेट्री में 70 रुपये में बिस्तर उपलब्ध था और 300 में कमरा। आप इससे अच्छे होटल में भी अपनी सुविधानुसार रुक सकते हैं।
6. चूड़धार तक जाने वाले ट्रेक के बारे में पिछले भाग में विस्तार से बताया जा चुका है।

तो अब इस यात्रा लेख को यहीं पर विराम देते हैं। इससे अगली यात्रा आगरा, फतेहपुर सीकरी और मथुरा-वृन्दावन का एक college tour थी। उस यात्रा में कड़वे अनुभव बहुत ज्यादा हुए, अतः उसका वृत्तांत तो नही लिखूँगा, पर जो अगला यात्रा लेख होगा, वो हिम्मत और रोमांच की पराकाष्ठा वाली यात्रा का लेख होगा।
ब्लॉग पर बने रहिए और पढ़ते रहिये.....अक्षय की "अक्षय" यात्राएँ......फ़िलहाल इस यात्रा के चित्रों का अंतिम जखीरा ये रहा.... रास्ते की सभी फ़ोटो चलती बाइक से ली गयी हैं, बिना रुके......
लक्की ढाबे के पास से दिखाई देता पर्वत श्रृंगों का नज़ारा

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जंगल से बाहर आने के बाद.....

ज़ूम करके देखिए..... सामने चोटी पर आपको एक मंदिर दिखेगा। वहां जाने का मन था पर तिवारी नही गया।

इसमे साफ दिखेगा मन्दिर।

एक जगह रुके थे, वहाँ से लिया गया चित्र

छाती ताने खड़े हैं ये पहाड़ आपके सामने। इनका आदर करोगे तो बेशक इनके सिर पर चढ़ जाओ..... नही तो पैरों में गिराने में देर नही लगाते ये
हिमाचली टोपी पहन कर हिमाचल में भ्रमण करता एक हिमाचल प्रेमी।
तिवारी मुंह इधर कर...... सब देख रहे हैं।


इधर उधर नही बीच मे देखो..... गांव वालों ने खाई के बीच मे मन्दिर बना रखा है।


इन्हीं रास्तों से ही जाना है। ये रास्ते संगड़ाह के बाद आते हैं।

हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से प्रबुद्ध बुद्ध भारती

एक बार अस्त हुआ तो क्या हुआ.....कल दोबारा आऊंगा नई ऊष्मा, नई ऊर्जा लेकर।

एक पहाड़ी गांव

रेणुका जी से नाहन के बीच कहीं.....यहां बैठकर कुरकुरे उड़ाए थे।
चूड़धार यात्रा के पिछले भागों को आप निम्नलिखित लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:-

Saturday 22 September 2018

जीत कर भी मिली हार....यही है चूड़धार... भाग-5

गतांक से आगे..



दिनांक- 6 फरवरी 2017

लेख के पिछले भाग में आपने पढ़ा कि सुबह चूड़धार जाने की प्रतिज्ञा करके मैं सो गया था। पूरी रात मुझे ऐसे सपने आते रहे कि मैं बर्फ में अनंत तक चलता जा रहा हूं। ऐसे ही सपनों को देखते-देखते सुबह 4:30 बजे मेरी आंख खुल गई। जब मैंने कमरे से बाहर आकर देखा तो पाया कि अभी सूर्योदय नही हुआ था और चंद्रमा की थोड़ी-थोड़ी रोशनी में चूड़धार की बर्फीली चोटियां चमक रही थी। अब इतनी सुबह और ठंड में तो कुछ किया नहीं जा सकता था तो मैं दोबारा जाकर बिस्तर पर लेट गया। लगभग आधे घंटे बाद मैं दोबारा उठा और शौच आदि से निवृत हुआ। जब मैं उठा था तो मैंने गीजर का बटन ऑन कर दिया था ताकि मैं यहां से नहाकर निकल सकूं। नहाना मेरी मजबूरी भी है और शौंक भी। नहाकर लगता है कि मेरे अंदर प्राणों का संचार हो चुका है, लेकिन आधे घंटे बाद तक भी गीजर का पानी गर्म नहीं हुआ तो मुझे लगा कि कि गीजर में कहीं कुछ खराबी ना हो, तो मजबूरी में मैंने टंकी से पानी निकाला और पहला डिब्बा अपने ऊपर डालते ही मुझे लगा कि शौंक बड़ी चीज नही है। क्या कहा...क्यों??



                   अरे भई, आप खुद ही सोचो फरवरी की सर्द रातों में समुद्र तल से 17-1800 मीटर ऊपर किसी पहाड़ी कस्बे के होटल की छत पर प्लास्टिक की टंकी में पानी है और उस पानी से आप सुबह-सुबह 5:30 बजे नहाते हो, तो उस समय आपके शरीर से जैसी लहरें निकलती हैं न, वो robot dance के महारथी को भी सोचने पर मजबूर कर देती हैं। #feeling_डांसर_वाली
चूड़धार शिखर पर पूरी शान से विराजमान भगवान शिव। मूल शिरगुल मन्दिर इससे 1.5 किलोमीटर नीचे स्थित है।






                  खैर, नहा-धोकर मैं तैयार हुआ और अंतिम बार फिर तिवारी को बोला कि चल तिवारी! तू भी चल पड़। पर वह पट्ठा रजाई में ही पड़ा रहा ये कहते हुए कि मैं पागल नहीं हूँ, तू चला जा। अब मैं तो यह सोच रहा था कि आज शाम तक ऊपर पहुंच जाऊंगा रात को मंदिर में रुकूंगा और कल को वहां से चल पड़ूंगा तो इसलिए मैंने वहां रात के हिसाब से गर्म कपड़े भी ले लिए और साथ में अपनी गर्म चद्दर भी। सुबह 6:30 के करीब मैंने अपना कमरा छोड़ दिया था और चूड़धार के लिए प्रस्थान कर गया। बाहर जाकर देखा तो चौहान साहब ने ढाबा खोल तो लिया था पर अभी नाश्ते की तैयारी शुरू नही की थी, तो उनसे 4-5 पैकेट बिस्किट के लिए और चल पड़ा चूड़धार की ओर.....




                 नोहराधार से चूड़धार के लिए जाते हैं तो आपको सामने एक छोटा सा गेट मिलता है, वही से चूड़धार जाने के रास्ते का आरंभ है। उसमें से निकलकर आपको कुछ दूर तो बिना पगडंडी के चलना पड़ता है लेकिन 5-7 मिनट जाकर आप मुख्य रास्ते पर आ जाते हैं। मैं भी उसी रास्ते पर चलने लगा। वैसे चूड़धार जाने के 2 रास्ते प्रसिद्ध हैं। पहला तो यही नोहराधार वाला, यहां से चूड़धार शिखर की दूरी 17 किलोमीटर के लगभग है। नोहराधार 1520 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, वहीं चूड़धार शिखर की ऊंचाई है 3647 मीटर। दोनों के बीच की दूरी है 17 किलोमीटर। अतः प्रति किलोमीटर 125 मीटर का हाइट गेन होता है। trekking की दुनिया मे इसे मुश्किल कहा जाता है। दूसरा रास्ता है- चौपाल गांव से होकर। चौपाल की ऊंचाई है 2550 मीटर और चूड़धार 3647, दोनो के बीच की दूरी है 7 किलोमीटर। प्रति किलोमीटर 157 मीटर का हाइट गेन, जो इसे और भी मुश्किल बनाता है। इसलिए आप कभी चूड़धार जाएं तो मेरे हिसाब से नोहराधार की ओर से चढ़कर चौपाल की तरफ उतरना सही रहेगा।

ये है नोहराधार से चूड़धार की ओर जाने वाला रास्ता। { फ़ोटो:-google}





                मैं तो नोहराधार की ओर से चढ़ रहा था। बीच मे कहीं-कहीं इक्का-दुक्का घर आते। अब मुझे चलते हुए आधा घण्टा हो गया था। मौसम साफ था और सूर्यदेव अपनी पूरी तेजी के साथ निकल आए। पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते हुए शरीर की ऊर्जा की ज्यादा खपत होती है और ऊपर से धूप भी तेज निकली थी तो उसका परिणाम यह हुआ कि मुझे गर्मी लगने लगी। तब मैंने अपने ऊपर की जैकेट निकाल दी और बैग के ऊपर डाल कर चलने लगा। लगभग 1 किलोमीटर चलने के बाद शरीर को पानी की आवश्यकता महसूस हुई। ध्यान में आया, अरे पागल! पानी की बोतल तो भरी भराई ही छोड़ आया। अब कुछ नहीं कर सकता था, तो चलता रहा। आगे जाने के बाद रास्ते में एक घर मिला। वहां एक बुजुर्ग आदमी बैठे थे तो पूछने लगे, अरे बेटा! कहां जा रहे हो?

 मैं तो जी चूड़धार जा रहा हूं।
बेटा! ऊपर तक नही जा पाओगे। बर्फ बहुत हैं। ऊपर कुछ लोग फँसे भी है, ऐसा भी सुना है।
हाँ ताऊ जी! मुझे भी नीचे पता चला ऐसा ही....
आप ऐसा करो, जहां तक जा सकते हो आओ। जहां आप को खतरा लगे, उसके बाद वापिस आ जाना।
इतनी बातचीत के बाद मैंने उनसे पानी की बोतल मांगी तो वह बोले बेटा 2 मिनट बैठो, मैं अभी लेकर आता हूं। उसके बाद वह आधा लीटर की एक पेप्सी की खाली बोतल लेकर आए। जब मैंने उसे खोलकर पानी भरना शुरू किया तो उसमें से अजीब तरह की बदबू आई। पूछने पर उन्होंने बताया कि इसमें मैंने शराब रखी थी, जो मैंने अपने घर पर निकाली थी। और कोई बोतल तो खाली थी नही तो मैं उसे किसी और बर्तन में डाल कर ये बोतल तेरे लिए ले आया। ऐसे होते हैं मेरे पहाड़ी बन्धु......उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करके मैंने बोतल को तीन चार बार धोया और उसमें पानी भर के चल पड़ा।
ये है उन ताऊ जी का घर, जिनसे बोतल ली थी दारू वाली.... अरे, पानी भरने के लिए।







             अकेले चलते चला जा रहा था, जब बोर होने लगा तो अपने हेडफोन निकाले और गाने सुनते हुए चलने लगा। कुछ दूर जाने पर एक गद्दी और उनकी पत्नी मिले। जाड़े चल रहे हैं तो इस समय उनकी सभी भेड़ वो नीचे ला चुके हैं, अभी वो जंगल से लकड़ियां तोड़ने जा रहे हैं। गद्दियों का पूरा-पूरा जीवन ही पहाड़ो में व्यतीत हो जाता है। हम किसी भी पहाड़ी यात्रा से लौट कर आते हैं तो अपनी शेखी बघारना नहीं भूलते। मैं इतनी ऊंचाई तक गया, ऐसे मौसम में गया, इतनी दिक्कत आई, टेंट लगाके सोए, आग जलाकर camping की...blah.. blah.......

पर कभी खुद की तुलना इन गद्दियों से करके देखो, इनके सामने हम कहीं ठहरते हैं क्या?? हम तो जाते हैं 2-4 दिन पहाड़ों में थोड़ी दिक्कत सहकर आकर कई सालों तक उसके गुण गाते हैं, लेकिन गद्दी और उनका परिवार जो पहाड़ो के जंगलों पर ही पूरी तरह निर्भर हैं, जहां के बुग्यालों में उनकी भेड़-बकरियां चरती हैं, इन्हें कितनी तकलीफ होती होगी?? तो दोस्तों, आपको जहां भी कोई गद्दी मिले तो समझ लेना कि आप एक ज़बरदस्त trekker, एक बेहतरीन mountain guide और अपने से मजबूत इंसान के सामने खड़े हैं, जो इन पहाड़ों की जान भी है और इनकी पहचान भी।
ये हैं वो गद्दी अंकल, जिनसे मेरी बातचीत हुई थी।



खैर, कुछ देर मेरी उनसे बात हुई और फिर मैं भी उन के साथ-साथ ही चलने लगा। लेकिन, धीरे-धीरे वो दोनों मुझसे आगे निकलने लगे। यूँ ही अकेले चलते-चलते लक्की ढाबा आ गया। मैंने कुछ खाया नहीं था वहां बैठकर एक चाय और बिस्कुट का नाश्ता किया और फिर आगे चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद  घनघोर जंगल शुरू हो जाता है। इतना घना कि अधिकतर जगह सूरज की धूप भी नही पड़ती। सर्दियों में पेड़ों के पत्ते सूखकर गिर जाते हैं।  जंगल मे इतना सन्नाटा था कि मेरे पैरों से दबकर वो पत्ते जो आवाज़ कर रहे थे, उसे साफ सुना जा सकता था। कुछ दूर जाने के बाद एक झरना सा आया। झरना क्या बस पानी की नाली सी थी। यही यहां के लिए पानी का मुख्य स्रोत है। पहाड़ो के लोग पहाड़ से रिसने वाले पानी को कोई बांध बनाकर रोक देते हैं और फिर पाइप से उसे छोड़ देते हैं। इस पानी से आप नहाओ, धोओ, पीओ, सुखाओ, बनाओ, खिंडाओ......जो मर्जी करो। अगर आप hygienic हैं, bisleri वाले बाबू हैं, तो फिर ये जगहें आपके लिए नही हैं साहब। या तो घर रहिये या शिमला, मनाली वगरह तो हैं ही।

                  खैर, मैं तो चल रहा था ये सोचते सोचते। बस कभी-कभी किसी पक्षी की आवाज़ सुनाई देती। फिर भी मैं अपनी मस्ती में अकेला चला जा रहा था। अब चलते-चलते शायद मुझे 7 किलोमीटर हो गए होंगे। मुझे भूख लगने लगी तो घर से मेरी माता जी ने मुझे जो पंजीरी दी थी मैं उसे निकाल कर खाने लगा। मैंने वो लिफाफा निकाला ही था कि अचानक से....... भालू



जी हाँ, सही सुना भालू। अब उसने क्या किया और मैंने क्या किया, ये तो अगले भाग में पता चलेगा। फिलहाल आप देखिए रास्ते के कुछ चित्र.....


सुबह जब दूसरी बार उठा......
ऐसे ऊबड़-खाबड़ रास्ते हैं चूड़धार के



फरवरी में पहाड़ ऐसे ही हो जाते हैं बंजर से..... पर जून जुलाई में इन्ही की खूबसूरती देखते बनती है।

लकी ढाबे पर चाय का इंतजार करता हुआ मैं

उस टाइम मैंने घुमक्कड़ी के सीढ़ी पर पहला कदम ही रखा था, तो प्राकृतिक दृश्यों से ज्यादा खुद के चित्र मैं ज्यादा खींचता था। फिर भी कुछ चित्र हैं, ठीक-ठाक से।

चूड़धार पर्वत श्रृंखला

इसके आसपास के क्षेत्र को सरकार ने संरक्षित कर रहा है। इस वन्य क्षेत्र को चूड़धार sanctuary कहा जाता है।

अकेले ट्रेक के फायदे हैं तो नुकसान भी हैं। दिल कोनी लगदा रे भाई.....



मेरे साथ इस यात्रा पर कभी कभार एक साथी और आ जाता था......मेरी परछाई



पाँव के यही स्त्रोत हैं इस रास्ते मे.....
धन्यवाद पहाड़ी भाइयों...... पहाड़ो से रिसते पानी को इस सफेद सी दीवार के पीछे रोक रखा है और पाइप के द्वारा छोड़ रखा है, ताकि यात्री पी सकें।

जो बर्फ वाली चोटियां दिख रहीं हैं न, उन्ही में से सबसे ऊंची पर स्थित है चूड़धार शिव मूर्ति।

चूड़धार को चूड़धार क्यों कहते हैं.....इस फोटो को ध्यान से देखेंगे तो समझ मे आ जायेगा।

आसमानों तक जाते ये रास्ते.......

मैं एक बार गर्मियों में पक्का जाऊंगा यहाँ। यहाँ की खूबसूरती को देखने

ऐसे हैं रास्ते......इन रास्तों पे चलते हुए ध्यान रखना पड़ता है। पैर मुड़ते हुए देर नही लगती। अगर मुड़ा तो बस पहुंच लिए चूड़धार फिर तो.....



है कठिन यह मार्ग लेकिन, अनवरत हम चल रहे हैं....

चूड़धार वन्य क्षेत्र का घनघोर जंगल....जहां तेंदुओं ओर भालुओ का राज है इस समय.....

 चूड़धार यात्रा के पिछले भागों को आप निम्नलिखित लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:-