Don’t listen to stories, tell the stories

Friday 29 December 2017

जीत कर भी मिली हार.....यही है चूड़धार।......भाग-1

लालड़ू से रेणुका जी

          दिन रविवार, तारीख 5 फरवरी 2017, समय सुबह के लगभग 8:00 बजे।
यही वह पल था, जब चूड़धार यात्रा का आरंभ किया गया। सही मायने में देखें तो 4 फरवरी से ही यह यात्रा शुरू हो चुकी थी, परंतु 4 फरवरी को मैं अपने निवास स्थान कैथल से अंबाला के पास लालड़ू में स्थित अपने दूसरे घर में आया। लालड़ू से ही मेरा दूसरा मित्र, जो इस यात्रा में मेरे साथ जाने वाला था,मेरे साथ आएगा।
यूँ तो जनवरी में कई गयी वैष्णो देवी यात्र  के बाद ही इस यात्रा को शुरू करना था पर उस यात्रा में मेरा साथी दिवांशु चूड़धार जाने से साफ-साफ मना कर गया। तब से ही मेरे मन में चूड़धार यात्रा की इच्छा घर की हुई थी और यह पूर्ण हुई फरवरी में। इस यात्रा में जो मेरा साथी था, वो था राकेश तिवारी।  वह हमारे घर में हमारा किराएदार ही है। किराएदार कह लो या घर का सदस्य, लेकिन है अपना ही। वह इस यात्रा में मेरे साथ जाने को राजी हो गया, जिसमें की हम दोनों उसकी बाइक Splendor पर जाने वाले थे।
ये हैं शिवालिक की घाटियाँ, देखते ही रहो बस।

              नियत तिथि पर यात्रा शुरू हुई। हम भगवान शिव के मन्दिर के बाहर से ही उनसे सफल यात्रा की कामना करके लालडू से निकल पड़े। लालडू से निकल कर सबसे पहले अंबाला जाना हुआ। जब आप चंडीगढ़ से अंबाला की तरफ आते हो तो अंबाला से पहले एक जगह आती है बलदेव नगर। बलदेव नगर से जहां एक रास्ता अंबाला छावनी(Ambala Cantt) चला जाता है, वही दूसरा रास्ता अंबाला शहर(Ambala City)। बलदेव नगर से भी थोड़ा सा पहले एक सड़क चली जाती है नारायणगढ़ की तरफ। हमें भी इसी रास्ते पर जाना था, तो बलदेव नगर का पुल ना चढ़ कर नीचे से ही नारायणगढ़ जाने वाली सड़क पर हमने अपनी मोटर साइकिल का हैंडल मोड़ दिया। अंबाला से नारायणगढ़ 42 किलोमीटर दूर है। रास्ता बिल्कुल साफ और बढ़िया बना है। लगभग 1 घंटे में हम नारायणगढ़ पहुंच गए। यहां एक और बात मैं आपको बताना भूल गया कि रास्ते मे कहीं मैंने अपना हेलमेट उतार दिया था और जब हेलमेट वापिस पहना तो ध्यान आया कि मेरा मफलर हवा में कहीं उड़ गया है। खैर, अब कहां उसे ढूंढने वापिस जाते तो सोचा आगे से ले लेंगे।


                    नारायणगढ़ जाकर आगे हम नाहन जाने वाले रोड पर चढ़ गए। नारायणगढ़, चंडीगढ़, पठानकोट और आनंदपुर साहिब, यह चारों शहर लगभग एक जैसे हैं। अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि ये सभी तो एक दूसरे से बहुत दूर हैं, फिर एक जैसे कैसे? वह ऐसे कि इन चारों शहरों को हिमालय का प्रवेश द्वार कहा जाता है। चंडीगढ़ से आप सोलन आदि होते हुए शिमला जा सकते हैं। पठानकोट से आप जम्मू-कश्मीर में प्रवेश कर सकते हैं। आनंदपुर साहिब से आप मनाली जा सकते हैं। वहीं नारायणगढ़ से आप नाहन के रास्ते हिमाचल में प्रवेश कर सकते हैं। नारायणगढ़ से नाहन का रास्ता छोटी छोटी पहाड़ियों के बीच से होकर जाता है, जिन्हें शिवालिक की पहाड़ियां कहा जाता है। आगे जाकर यही पहाड़ियाँ पहाड़ बन जाती हैं।

        रास्ता अच्छा बना है, पर सड़क पर कहीं-कहीं कुछ गड्ढे आ जाते हैं। रास्ता Double Lane है, तो दुर्घटनाओं की कोई ज्यादा संभावना नहीं रहती। एक तरफ पहाड़ व दूसरी तरफ घाटियां, बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत करते हैं। रास्तों पर चलते हुए रुकने का दिल नहीं करता। इन्हीं नजारों को देखते हुए हम नाहन पहुंच गए। नाहन शहर हिमाचल प्रदेश का एक जाना पहचाना शहर है। भारत की स्वतंत्रता से पहले नाहन सिरमौर रियासत के अंतर्गत आता था और सिरमौर की राजधानी नाहन ही थी, तो नाहन का उस काल खंड में भरपूर विकास हुआ। नाहन में भी देखने लायक बहुत से स्थान हैं। जगन्नाथ मंदिर, बाबा बनवारी दास मंदिर(इन्हीं के कारण ही शहर बसा, उसकी कहानी फिर कभी), रॉयल पैलेस आदि।और हां, गढ़वाली राजाओं से मतभेद के चलते दसवें गुरु पातशाह श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज भी नाहन के राजा मेधनी प्रकाश से मित्रता के चलते नाहन आए थे। नाहन शहर की सुंदरता उन्हें इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने यहां 8 महीने तक निवास किया।
नाहन से रेणुका जी के बीच रास्ते मे एक मंदिर।


         जब हम नाहन की तरफ जा रहे थे, तो हमसे आगे एक बस रेणुका जी जा रही थी। हमने सोचा कि हम इस बस के पीछे पीछे ही चलेंगे। जब हम जा रहे थे, तो वह बस नाहन शहर में चली गई। हमने राह में किसी से पूछा कि यहां से रेणुका जी कितनी दूर है? तो उस बन्दे ने बताया कि आप यहां क्यों आ गए? यह रास्ता तो बस स्टैंड जाता है। रेणुका जी जाने के लिए शहर के बाहर से ही एक रास्ता है। हमें दोबारा फिर नाहन के बाहर आना पड़ा और हम रेणुका जी की तरफ चल पड़े। चलते हुए लगभग आधा घंटा हो गया था और समय भी 11 बजे के आसपास हो गया था। तो हम नाहन से आगे एक जगह जमटा में एक होटल के पास खाना खाने के लिए रुके। वहां एक-एक तंदूरी परांठा और चाय का आर्डर दे कर हम फोटो खींचने में लग गए। मेरे साथ जो साथी था राकेश तिवारी(जिसे मैं प्यार से तिवारी ही बोलता हूं),  वह बंदा कुछ अजीब किस्म का इंसान है। उसे ना तो फोटो खींचना पसंद है और ना ही फोटो खिंचवाना। जब मैं उसे बोलता कि खड़ा हो जा, मैं तेरी फोटो लेता हूं, तो वह कहता के भाई, मैं फोटो नहीं खिंचवाता और कई बार मेरे फोटो लेने के आग्रह पर भी ना कर देता, लेकिन फिर भी मैं उससे फोटो खिंचवा ही लेता। जमटा में नाश्ता करने के बाद हम फिर आगे के लिए चल पड़े। जमटा के बाद जो नजारा शुरू हुआ, वह अविस्मरणीय था।  सड़क के एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ घाटी बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। रास्ते में 3 बाइकर्स का एक ग्रुप भी आया, जो सब के सब 3 रॉयल एनफील्ड पर सवार थे। जमटा से आगे जाने के बाद एक पुल आता है और उसके पीछे थोड़ा सा ऊंचाई पर एक मंदिर भी है। गर्मियों में यहां पर काफी ऊंचाई से झरना नीचे गिरता है, इस कारण यह photoshoot point है। लेकिन, हम फरवरी में गए थे तो वह झरना सूखा हुआ था। वहां पर उन bullet वालों से बात हुई, तो पता चला कि वह भी चूड़धार ही जा रहे थे।
जमटा में तंदूरी परांठे ओर चाय का नाश्ता।


       ऐसे ही पहाड़ों की इस अप्रतिम सुंदरता के दर्शन करते हुए हम रेणुका जी पहुंच गए। रेणुका जी एक शहर ना होकर कुछ लोगों की एक बस्ती है। यह जगह भगवान परशुराम, उनके पिता जमदग्नि और माता रेणुका जी से संबंधित है।  रेणुका जी झील मुख्य रास्ते से 1.5 किलोमीटर हटकर है। एक बार तो हमारा दिल हुआ कि हम पहले चूड़धार जा आते हैं  और वापसी में रेणुका जी झील के दर्शन करेंगे। लेकिन कहते हैं ना कि जब बुलावा आता है तो वो टाला नहीं जा सकता। पता नहीं क्या हुआ कि तिवारी ने बाइक रेणुका जी की तरफ ही मोड़ ली।
जाने से पहले अपनी बाइक साफ करता तिवारी। इतना प्यार ये अपने घर वालों से नही करता, जितना अपनी मोटरसाइकिल को करता है।

शिवालिक के पहाड़।

जमटा में नाश्ते के बाद का photo session।

ये रास्ते। बस क्या कहूँ इनके बारे में। न करवा दी इन्होंने।


ऐसा है नाहन से रेणुका जी तक का रास्ता। जमटा के बाद रास्ता इससे कम चौड़ा हो जाता है।

गर्मियों में यही पहाड़ जब हरे भरे हो जाते हैं, तो इनकी सुंदरता का कोई सानी नही।

बाइक पर एक selfie।

इस पुल के पास ही है वो मन्दिर। पीछे खड़े हैं वो bullet वाले।

कई कई जगहों पर ऐसा हो जाता है रास्ता।

क्रमशः


Thursday 21 December 2017

फरवरी के फन, चूड़धार में.....☺☺

नमस्कार मित्रों

 इतने दिनों तक आपसे कोई संपर्क नहीं हो पाया, इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं। परंतु क्या करूं, m.comm द्वितीय वर्ष के एग्जाम चल रहे थे, तो वहां समय देना भी आवश्यक था।
पिछला यात्रा लेख, जनवरी में वैष्णो देवी यात्रा, जो मैंने वैष्णो देवी और शिवखोड़ी यात्रा पर लिखा था, उसे आप सब ने इतना प्यार दिया। उसके लिए धन्यवाद देने लायक मेरे पास शब्द नहीं है, ओर वैसे भी अपनो को धन्यवाद कहते नही हैं।

            वादा किया था कि जल्द ही आपसे अगली यात्रा के साथ मिलूंगा और अब समय आ गया है, इस वादे को पूरा करने का। आज की यह पोस्ट कोई यात्रा वृतांत तो नहीं है, पर अगले यात्रा लेख की एक भूमिका मात्र है, जिस यात्रा के बारे में लिखूंगा।

 यह यात्रा फरवरी 2017 में की गई थी, अंबाला से रेणुका जी, हरिपुरधार होते हुए चुरधार। किसी भी पहाड़ी क्षेत्र में यह मेरे द्वारा की गई  ""पहली बाइक यात्रा""  थी। मजा भी बहुत आया और दुख भी बहुत हुआ।
          यह यात्रा जिन चरणों में पूरी होगी, आज थोड़ा उसके बारे में बता देता हूं। इस यात्रा में आप और मैं अंबाला से चलकर सबसे पहले जिस पर्यटक स्थल पर पहुंचेंगे- वो है हिमाचल के जिला सिरमौर में स्थित रेणुका जी झील व मन्दिर। दर्शन के पश्चात हम जाएंगे, सिरमौर के लोगो की कुलदेवी माता भंगायनी देवी मंदिर
 हरिपुरधार के बाद चूड़धार यात्रा के बेस कैंप नौहराधार तक पहुंचेंगे और उसके बाद शुरू होगा चूड़धार का रोमांचक सफर। trek करने के पश्चात फिर हम वापस आएंगे अंबाला।




        इसे मैं रोमांचक सफर इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस पूरे सफर में मेरे साथ अन्य कोई भी नहीं था। जो मित्र मेरे साथ बाइक पर गया था, वो भी चूड़धार जाने के लिए मना कर गया। पर मंजिल के करीब आकर भी दूर जाना मुझे अच्छा नही लगा और मैं निकल पड़ा अकेला ही, रास्ते के खतरों से अनजान। बिना tent ओर sleeping bag के, बिना खाने पीने के सामान के। अकेले मुसाफिर को यह भी नही पता कि रात को रुकना कहाँ और कैसे है। नोहराधार के लोगो ने भी मेरे अकेले जाने पर ऐतराज जताया, पर मैं नही रुका(हालांकि, इसका परिणाम भी मुझे भुगतना पड़ा)। मैं नोहराधर से चला और ट्रैक शुरू किया तो वापस नोहराधर आने तक मुझे रास्ते में सिर्फ एक सरदार जी और उनकी पत्नी मिले।

               इस सफर में डर भी है, भय भी, मजा भी और रोमांच भी। मुझे लगता है कि जिस प्रकार मुझे इन सब की अनुभूति हुई, आप भी मेरे साथ इन सब भावनाओं की अनुभूति करेंगे। इस यात्रा का आगाज़ मैं अगले शुक्रवार से करूँगा ओर प्रत्येक शुक्रवार  को एक नया लेख लेकर आपके सामने आऊंगा। मैं आज के इस लेख में अपनी इस यात्रा के 10 ऐसे फोटो लगा रहा हूं, जो मुझे सबसे पसन्द हैं। इसके बारे में पूरी जानकारी आपको अगले लेखों में मिलेंगी।






            और हां, एक बात और। इस बार मेरे उन मित्रों की शिकायत भी दूर होगी, जो कहते हैं कि मैं अपने यात्रा लेखों में अपने फोटो ज्यादा लगाता हूं। तो दोस्तों, इस यात्रा से पहले तक मैं केवल एक tourist था और इस यात्रा ने मुझे एक घुमक्कड़ बनाया तो इस यात्रा के चित्र और इससे आगामी यात्राओं के चित्र आपको मुझसे ज्यादा प्राकृतिक नजारों के मिलेंगे।






आप सब की टिप्पणियों ओर सुझावों के इंतज़ार में:-
धरती-पुत्र

Tuesday 24 October 2017

जनवरी में वैष्णो देवी यात्रा.... भाग-5

सभी मित्रों को नमस्कार।
आशा है आप सब के लिये दीपावली, गोवर्धन पूजा आदि पंच-पर्व बहुत शानदार गुजरे होंगे। सब त्यौहारों की खुशियां मनाने के बाद हाजिर हूं मैं, अपने साप्ताहिक यात्रा लेख का पांचवा भाग लेकर। आज के यात्रा वृतांत में आपको शिवखोड़ी के दर्शन करवाए जाएंगे।
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय।                                                                        दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै "य" काराय नमः शिवाय।।

आप सब हर बार कहते थे कि सिर्फ मेरी ही फ़ोटो होती हैं, इसलिए बड़ी मुश्किल से लैपटॉप से में वीडियो खोजी। फिर उसका screenshot लिया, edit किया।
तोर नतीजा आपके सामने।
जारी है......

पिछले भाग में आपने पढ़ा, चाय ब्रेड का नाश्ता करने के बाद photo आदि का दौर हुआ। उसके बाद जब सभी सवारियां बस में सवार हो गई तो ड्राइवर ने भी बस अपनी मंजिल की तरफ बढ़ा दी। कुछ देर चलने के बाद रास्ते में एक बहुत बड़ी नदी आई। पहले तो मुझे उसका नाम याद नहीं था कोई उसे सतलुज बोल रहा था तो कोई व्यास, लेकिन उस यात्रा के बाद मुझे पता चला कि उस नदी का नाम था "चिनाब"। "चंद्रा" ओर "भागा" दो अलग अलग नदियों के मिलन से "चन्द्रभागा" का निर्माण होता है, जो स्थान परिवर्तन के साथ अपभ्रंश होकर "चिनाब" हो गया। बहुत ही बड़े व  विस्तृत पट के साथ वह नदी बह रही थी। वहां राफ्टिंग का बोर्ड भी लगा था लेकिन मुझे नदी में कोई भी राफ्टिंग करता हुआ नहीं दिखा। श्वेत धवल पानी के साथ वह नदी अपनी मंजिल की ओर पाकिस्तान में जा रही थी। चिनाब का इतना साफ पानी कि आप को नदी में पड़े हुए पत्थर भी साफ साफ दिखे। मेरा वहां फोटो लेने का बहुत मन था पर मैं बस में था, इस कारण मैं फोटो ले नहीं सकता था। उस नदी का विशाल पुल पार करके हमारी बस घुमावदार रास्तों से शिवखोड़ी की तरफ बढ़ रही थी। काफी देर के बाद बस ने शिवखोड़ी के बेस कैम्प "रणसू" बस स्टैंड पर ब्रेक लगाए।
रास्ते के किसी स्कूल में खेलते हुए बच्चे।

अक्षय



चिनाब पर लगा हुआ rafting का सूचना-पट्ट।

ओर ये रही चन्द्रभागा(चिनाब)

रक ओर।



बदलो से छन कर आती सूरज की किरणें।

कभी न खत्म हों ये रास्ते।


                        रणसू का बस स्टैंड बहुत ही विस्तृत भू-भाग में फैला हुआ है। जब हम बस में थे तो उस समय हल्की-हल्की बूंदाबांदी हो रही थी पर जब रणसू पहुंचे तो एकदम से बरसात बंद हो गई। शायद यह भोलेनाथ का हमारी सुगम यात्रा होने का आशीर्वाद ही था। शिवखोड़ी जाने के लिए जो पैदल रास्ता है वह मुख्य बस स्टैंड से ना होकर एक दूसरे बस स्टैंड से जाता है। वहां के लोंगो की मिलीभगत ही लगालो पर वहां जाने के लिए अलग से गाड़ियां और मिनी बस खड़ी थी। हमने भी एक मिनी बस में किराया पूछा जो ₹10 था और बैठ गए। ₹10 में वह केवल मात्र डेढ़ किलो मीटर दूर हमें लेकर गया, जहां से भी आधा किलो मीटर जाकर हम ने पर्ची कटवाई। यात्रा पर्ची कटवाने के लिए बहुत लंबी लाइन थी। यहां भी वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड की तरह एक यात्रा बोर्ड बना हुआ है, जो सभी यात्रियों को एक unique registratiom नंबर देकर यात्रा के लिए परमिट प्रदान करता है। जैसे-तैसे लाइन में लगकर हमने अपनी पर्ची कटवाई और भोले का नाम लेकर चल पड़े उन के दर्शन करने को।

          हम थोड़ा ही चले होंगे कि एक नदी पर बने पुल पर पहुंचे। वहां आटे की गोलियां बेचने वाला एक मुस्लिम बैठा था और वह आटे की गोलियां उस छोटी सी नदी के अंदर अपना जीवन व्यतीत कर रही छोटी-छोटी मछलियों के लिए थी। उनको अनदेखा करते हुए मैं और देवांशु आगे बढ़ते गए, प्राकृतिक नजारों को देखते हुए। क्योंकि उस समय मैं घुमक्कड़ नहीं tourist था और दिवांशु का भी यह पहला पर्वतीय दौरा था तो हम एक दूसरे की फोटो लेने में व्यस्त हो गए। जहां भी सांस लेने के लिए रुकते वही फोटो शुरू हो जाती।
शिवखोड़ी के रास्ते ओर मैं।

एक संयुक्त चित्र भी।

         यात्रियों की यात्रा सुगम व भक्तिमय हो, इसके लिए श्राइन बोर्ड ने बहुत अच्छे इंतजाम कर रखे हैं। जगह-जगह पर पानी पीने के लिए प्याऊ बनाए गए हैं। सभी श्रद्धालु भोले की भक्ति में रंगे हुए ही यात्रा करें, इसके लिए मधुर संगीत की व्यवस्था भी कर रखी है। यह पूरी यात्रा एक नदी के साथ-साथ चलती है और शिवखोड़ी गुफा तक पहुंचने के लिए आपको लगभग 5:30 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है।  कल-कल करती हुई नदी के साथ चलते हुए  हम अपनी यात्रा कर रहे थे। एक प्रसाद की दुकान आई और हम दोनों ने अलग-अलग प्रसाद लिया। आपको बता दूं, शिवखोड़ी गुफा के रास्ते में बंदर बहुत हैं। जब हम प्रसाद ले रहे थे तभी एक बंदर ने झपट्टा मारा लेकिन दुकान वाले ने उसे डरा कर भगा दिया। फिर उस दुकान वाले भाई ने हमें सचेत किया कि भैया! आप प्रसाद को किसी बैग में या अपने कपड़ों में डाल लो, नहीं तो यह बंदर आप को नुकसान पहुंचा सकते हैं।  क्योंकि मैं यात्रा में 1 छोटा बैग अपने साथ लिये हुए था तो मैंने तो अपना प्रसाद अपने बैग में डाल लिया और दिवांशु ने अपना अपने जैकेट के अंदर। सही समय तो याद नहीं लेकिन बिल्कुल धीरे-धीरे चलकर फोटो खींचते हुए हम चलते गए और गुफा के पास पहुंच गए। वैष्णो देवी गुफा की तरह ही शिवखोड़ी गुफा में भी मोबाइल का प्रयोग वर्जित है, लेकिन यहां आपको पर्स और बेल्ट अंदर लगा कर जाने की छूट है। हमने भी श्राइन बोर्ड के locker room में जाकर अपना मोबाइल व जूते जमा करवा दिए।


              मोबाइल वगैरा जमा करवाकर जब लाइन में लगने के लिए बाहर पहुंचे तो देखा LINE क्या यह तो क्लेश है। इतनी बड़ी लाइन वहां लगी हुई थी पर हमें दर्शन तो करना ही था तो जी हम भी लग गए लाइन में। मुझे नहीं पता कि कितना इंतजार किया लेकिन वह समय बिलकुल सामने खड़े पहाड़ जैसा था। वहां पर जो गार्ड बैठे थे, वह यात्रियों के ग्रुप बनाकर अंदर भेज रहे थे क्योंकि शिवखोड़ी गुफा के बारे में मैंने सिर्फ इतना ही सुना था कि यह गुफा बहुत खतरनाक है। काफी देर बाद जब हमारा नंबर आया तो हम भी गुफा के अंदर प्रवेश हुए। गुफा के अंदर प्रवेश द्वार पर शिव परिवार की स्थापना की गई है और एक बहुत बड़ा हॉल है जैसा अमरनाथ गुफा का है। लेकिन असली गुफा शुरू होती है कुछ आगे से। हमें यहां भी इंतजार करना पड़ा क्योंकि ग्रुप को एंट्री के बाद गुफा में एक एक बंदे को ही भेजा जाता है। गुफा शुरू में थोड़ी सी खुली है लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते रहते हैं, वैसे-वैसे यह गुफा भी संकरी होती जाती है। आधी से अधिक दूरी आपको दो चट्टानों के बीच से फंसते हुए रगड़-रगड़ कर पर करनी होती है। (यहां मैंने चित्र भी लगाए हैं, जो मेरे द्वारा नही लिए गए) ।
गुफा के प्रवेश द्वार।





अंदर कहीं का दृश्य।

जब वीडियोग्राफी बन्द नही थी।


इस तरह की है शिव की खोड़ी।

                    जब हम गुफा में अंदर जा रहे थे तो एक घटना घटी। हुआ यूं कि हमसे दो तीन व्यक्ति छोड़कर आगे एक आदमी जा रहा था। उस आदमी को पता नहीं क्या हुआ कि वह बिल्कुल जोर-जोर से रोने लगा- मुझे बाहर निकालो, मुझे नहीं जाना। लेकिन शिवखोड़ी गुफा जिसमें 1 व्यक्ति ही अंदर जा सकता है, दूसरे की तो जगह ही नहीं रहती, ऐसे में उसे कैसे बाहर निकाले। पर वह महाराज तो अपनी जगह अड़ कर खड़े हो गए। उसके खड़े रहने पीछे वाली लाइन आगे ही नही सरक रही थी तो फिर जब पीछे वाले लोगों ने उसे समझाया, वो नही माना। डराया तब भी नहीं माना, लेकिन जब धमकाया तो उसे मजबूरीवश आगे बढ़ना पड़ा। पूरे रास्ते उसका रोना-चिल्लाना जारी रहा और उसका यह रोना शिव के आगे जाकर ही खत्म हुआ। खैर, शिवखोड़ी गुफा में संकरे रास्ते में चलते हुए अंत में आप पहुंच जाते हैं एक बहुत ही बड़े हॉल में, जिसमें भगवान शिव 4 फुट ऊंचे शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं। उस गुफा के हॉल में शायद पानी रिसता रहता हो, जिससे ऐसी आकृतियां बनी। गुफा में मौजूद आकृतियां हूबहू हमारे दैवीय चिन्ह और देवी देवताओं की मूर्तियां हैं।


बहुत से लोग हैं, जो ऐसी चीजों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से या यूँ बोलिए की वैज्ञानिक चश्मे से देखते हैं। बहुत अच्छी बात है धर्म को विज्ञान से जोड़ना भी चाहिए, लेकिन उन बुद्धिजीवियों से मैं एक बात पूछना चाहता हूं। चलिए, पानी रिस-रिस कर ऐसी आकृतियां बन जाती हैं (मैं स्वयं भी मानता हूं), लेकिन वह आकृतियां हमारे धर्म के प्रतीकों जैसी ही क्यों बनती हैं?? मैंने कभी किसी गुफा में जीसस या इस्लाम के किसी चिन्ह की आकृति नहीं बनी देखी और ना ही सुनी। आपने देखा या सुना हो तो आप बताओ। कहीं भी ऐसी कोई बात होती है तो वह हिंदू धर्म से ही क्यों जुड़े होती है? आखिर क्यों ऐसी गुफाओं में हमारे देवों की मूर्तियां उकेरी हुई मिलती है? जवाब की प्रतीक्षा में हूं......

               चलिए phillosphy छोड़कर यात्रा पर आते हैं। शिवखोड़ी गुफा के हॉल में मैं लगभग 20 मिनट तक बैठा रहा और रुद्राष्टक और शिव तांडव स्त्रोत्र का पाठ  किया। वहां उस रास्ते के भी दर्शन किए, जिसके बारे में मान्यता है कि यह रास्ता अमरनाथ जाता है। मुझे नहीं पता इस बात में कितनी सच्चाई है लेकिन वहां बैठे हुए पंडित जी ने बताया था कि पहले कभी कई लोग यहां से अमरनाथ गए हुए हैं, लेकिन अब किन्हीं कारणों से नहीं जा पाते। उसके बाद वापस आने का रास्ता वह संकरा रास्ता नहीं है। जिस प्रकार से वैष्णो देवी गुफा का नया रास्ता बनाया गया है, उसी तरह शिवखोड़ी गुफा में भी पहाड़ को काटकर नया रासता बनाया है। जो लोग संकरे रास्ते से नहीं आ पाते, वह दर्शन करने के लिए नए रास्ते से आते हैं और जाने का रास्ता तो केवल मात्र यही है। बाहर आकर हमने अपने मोबाइल और जूते आदि लॉकर से बाहर निकालें और पहने। बस वाले ने भी हमें 4 घंटे का समय दिया हुआ था जिसमें से सवा 3 घंटे हो चुके थे क्योंकि लाइन बहुत ही ज्यादा लंबी थी। हमने वापसी में ज्यादा समय न लगाते हुए जल्दी-जल्दी उतराई की। शिवखोड़ी की यात्रा जहां से शुरू होती है, वहां से दोबारा जीप में बैठकर रणसू बस स्टैंड पर पहुंचे और जब बस में घुसे तो देखा कि वहां हमारे दोनों के अलावा और कोई भी नहीं था।

                हम फिर से बाहर आए और उस टाइम बारिश शुरु हो चुकी थी। हल्की-हल्की बारिश में हम बस स्टैंड का नजारा देखने लगे। उस बस स्टैंड के पास एक बस भी खड़ी थी जो टूरिस्ट बस थी। उसमें गुजरात के कुछ यात्री आए हुए थे। जब हम ऊपर से नीचे आ रहे थे तो हमने सिर्फ एक-एक समोसा ही खाया था। उस बस के यात्रियों द्वारा पूड़ी और छोले बनाए जा रहे थे। जब हमने उनसे पूछा कि क्या हम भी खा सकते हैं तो उन लोगों ने बड़े प्रेम से हमें बिठाया और हमारे लिए थाली लगाई। हमने भी पूरे पेट भर कर खाया और जब हमने उन्हें दान स्वरूप कुछ पैसे दे देना चाहे तो उन्होंने बड़े प्रेम से लेने से इंकार कर दिया। जय गुजरात


           वापसी में देवांशु ओर मैं mini militia नामक गेम खेलने लगे और हैदराबाद वाले भाइयों से गपशप भी करते रहे। रात हो चुकी थी तो समय पर ध्यान नही दिया। कटरा आने के बाद पैदल ही रेलवे स्टेशन की ओर चले गए, यह पता करने कि ट्रेन का टाइम क्या है?  शायद यह मेरे लिए बहुत गलत फैसला था। बस स्टैंड से 2.5 किलोमीटर दूर पैदल स्टेशन पर जाना। जब स्टेशन जाकर पता किया तो पता चला अम्बाला जाने वाली गाड़ी 20 मिनट पहले ही जा चुकी है।और अगली ट्रेन रात के 1:15 पर है।  तब हमने अगले दिन का टाइम पूछा क्योंकि जम्मू कश्मीर में आप प्रीपेड सिम नहीं चला सकते, तो पूछताछ काउंटर पर ही पता करना पड़ा। अगले दिन की ट्रेन सुबह 9:30 बजे की थी, जो मेरे और दिवांशु दोनों के लिए बिल्कुल फिट बैठती थी। हमने फैसला किया कि आज फिर वहीं रुकते हैं और कल की ट्रेन से अपने घर जाएंगे। हम फिर से वीर भवन में आए, सामान लॉकर से निकलवाया और अब की बार हम ने कमरा ना ले कर हॉल में ही रात काटी। सुबह उठकर सिर्फ मुंह हाथ धोया और स्टेशन के लिए रवाना हो गए। मुझे ट्रेन का नाम तो याद नहीं लेकिन हम उसी ट्रेन में जो 9:30 बजे जा रही थी, अंबाला के लिए टिकट लेकर बैठ गए। उस ट्रेन ने हमें अंबाला शाम 5:00 बजे के आसपास पहुंचाया। वहां से मैं अपने लालड़ू वाले घर आ गया और देवांशु भाई मेरे मुख्य घर कैथल।
पीछे दिख रहा है रणसू का बस स्टैंड।

शिव दर्शन के पश्चात।

रास्ते मे कहीं।

कौन कौन रहना चाहेगा ऐसे घरों मे।

पहाड़ो में धरतीपुत्र।

श्रीराम मंदिर और भक्त।

गुजरातियों के यहां जीमते 2 ब्राह्मण।

दोस्तों यह थी मेरी वैष्णो देवी यात्रा जो 5 भागो में समाप्त हुई। वर्ष 2017 मेरे लिए यात्राओं का वर्ष साबित हुआ है। इस वर्ष अब तक 9 यात्राएँ हो चुकी है, ओर शायद 1 या 2 ओर भी हों।
अगले यात्रा लेख के साथ जल्द ही आपसे मुलाकात होगी। तब तक कि लिए.....
।।वन्देमातरम।।

Tuesday 17 October 2017

जनवरी में वैष्णो देवी यात्रा...... भाग-4


"अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥"


लंका पर विजय हासिल करने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मन से कहा," हे लक्ष्मण! यह सोने की लंका मुझे किसी तरह से प्रभावित नहीं कर रही है माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है।"

भारत की इस पावन भूमि को शत-शत नमन करते हुए आज के अपने इस तीसरे लेख को मैं आप सब को समर्पित कर रहा हूं। भारत एक ऐसा देश है कि आप अगर सात जन्म भी ले लें तो भी इस देश में स्थित तीर्थ स्थानों, प्राकृतिक दृश्यों से सराबोर पर्यटक स्थलों और अन्य स्थानों का भ्रमण नहीं कर सकते। एक ऐसा विशाल भूभाग है भारत जिसके कण-कण में देवी देवताओं का निवास है। प्रकृति ने इस पुण्यभूमि को अपने दोनों हाथों से आशीर्वाद देकर इसे अनुपम सौंदर्य से नवाज़ रखा है। मेरा, आपका, हम सबका सौभाग्य है कि हम सब भारत मे रहते हैं।

                                  कटरा से शिव खोड़ी गुफा तक

                       खैर, मैं अपने यात्रा वृतांत पर आता हूं। जब मैं सुबह सो कर उठा तो सबसे पहले देवांशु को उठाया। शिवखोड़ी जाने या न जाने पर बहस भी हुई, पर अंत में यह निर्णय हो ही गया कि शिवखोड़ी जाना है। अब बारी आई नहाने की। कटरा कोई बहुत अधिक ऊंचाई पर नही है। समुद्र तल से 876 मीटर पर कटरा स्थित है। जनवरी में हमारे मैदानों में ही बहुत ठंड पड़ती है, तो कटरा में अधिक ठंड होनी तो स्वभाविक ही थी। जनवरी में सुबह 7 बजे ठंडे पानी मे नहाना(वो भी पहाड़ो से आता है ठंडा पानी)। मित्रवर ने तो हाथ खड़े कर दिए। पर मैं तो दैनिक क्रियाओं से फारिग होकर बाथरूम में घुसा ओर नहाना शुरू किया। शुरू में तो पानी ने जरूर कंपकपी पैदा की शरीर मे, पर 5-6 डिब्बे डालने के शरीर अभ्यस्त हो गया।

                             कपड़े आदि बदल कर हम "वीर-भवन" के संचालक श्रीमान संगीत सिंह जी के पास पहुंचे और उनसे शिवखोड़ी जाने के बारे में बात की। उनके जानकार होंगे कोई(नाम मुझे ध्यान नही) तो उन्होंने कहा कि आप ऐसा करना, बस-स्टैंड पर उनके पास चले जाना। मैं उन्हें फोन कर देता हूं कि आप 2 लोग आ रहे हैं। संगीत जी के वह मित्र कटरा से शिवखोड़ी तक टूरिस्ट बस चलाते हैं। संगीत जी के कहे अनुसार हम उनके मित्र के पास जाने के लिए चल पड़े। कल की ही तरह हमने अपना सामान लॉकर में ही जमा करवा दिया था। सिर्फ रात की ठंड से बचने के लिए मैंने गरम स्वेटर रख ली और वीर-भवन से बाहर आ गए। एक किलोमीटर पैदल चलकर हम कटरा के बस स्टैंड पहुंचे और पूछताछ करके संगीत जी के मित्र के पास पहुंच गए। उनसे राम-राम हुई, बात की उन्होंने बोला कि मेरे पास फोन आ गया था, आपकी सीट बुक कर दी गयी है। उन्होंने हमें टिकट लेने के लिए कहा। हमने जब टिकट के पैसे पूछे तो उन्होंने ₹360 दोनों जनों के बताएं। अब जैसा कि हम भारतीयों का स्वभाव और रीति दोनों ही है, हमने उन्हें वही जवाब दिया कि भैया ठीक-ठीक लगा लो। आगे से उनका जवाब था कि आप R.S.S. से हो तो हमने पहले ही 100 रुपए कम कर दिए हैं, वरना बाकी सब से ₹220 प्रति सवारी लेते हैं। अब कहने सुनने की कोई गुंजाइश नहीं थी।  हमने टिकट ली और आग्रह करके उनसे खिड़की के पास वाली डबल सीट की माँग की। उन्होंने हमें एक विंडो सीट दे दी जोकि बस की सबसे आखिरी सीट थी। उस बस में केवल मात्र दो ही सीटें बची हुई थी जोकि संगीत जी ने हमारे लिए पहले ही बुक करवा दी थी। हमने बस चल संचालक का धन्यवाद किया और जाकर अपनी सीट पकड़ ली। लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद बस ने बस स्टैंड को छोड़ दिया और शिवखोड़ी की और जाते हुए रास्ते को पकड़ लिया। लगभग 15 मिनट के बाद टिकट की चेकिंग करने वाला एक लड़का आया और हम से टिकट की डिमांड करने लगा। अब हम सबसे आखरी यात्री थे तो हमारी टिकट चेक करने के बाद उसके पास कोई काम नहीं था। मैंने उसे अपने पास बैठने का आग्रह किया जिसे उसने सहर्ष मान भी लिया। वह हमारे पास बैठा और मैंने उससे बातचीत शुरू कर दी। सबसे पहले मैंने उसे पूछा कि शिवखोड़ी में देखने लायक क्या है, रास्ते में कहाँ-कहाँ बस रुकती हैं आदि। उसने हमें रास्ते की सारी जानकारी दी। मैं भी आपको सब बताऊंगा, बस आप पढ़ते रहिये।
जय महामाई वैष्णो। 5 बार तो बुला लिया आपने, छठी बार भी बुलाओगी तो इससे भी ज्यादा उत्साह से आऊंगा।

वीर-भवन से बाहर निकल कर लिया एक चित्र। पीछे भवन की ओर जाता रास्ता दिख रहा है।


लगभग 20 मिनट चलने के बाद ड्राइवर ने बस के ब्रेक लगा दिए। खिड़की से बाहर देखा तो पास में एक मंदिर था। हमने पहले ही पूछ लिया था तो अब दोबारा किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं थी। आप सब को तो बता ही देता हूं कि बस रुकी थी जीतू बाबा के मंदिर के सामने। कटरा से शिवखोड़ी जाते हुए रास्ते में यह पहला स्थान है, जहां बस रुकती है। मंदिर का निर्माण कार्य उस समय चल रहा था। हमने अपने जूते बस में ही उतार दिए थे तो रास्ते में बजरी पर चलते हुए हमें बहुत दिक्कत आई, पर जैसे तैसे करके हम मंदिर में पहुंच गए और दर्शन किए।

इस मंदिर के बारे में लोगों की मान्यता है की जित्तो बाबा जी को वैष्णो माता का आशीर्वाद प्राप्त था। जीतो बाबा हर रोज अपने घर से मां वैष्णो देवी के दर्शन करने के लिए गुफा तक जाया करते थे। आप मे से जो लोग वैष्णो देवी गए होंगे, उन्हें पतां होगा कि जब हम कटरा से  त्रिकुटा पर्वत पर देखते हैं तो हमे माँ वैष्णो का भवन नही दिखता। ऐसा इसलिये है क्योंकि भवन पर्वत के दूसरी तरफ है। जित्तो बाबा के मंदिर से भवन साफ-साफ दिख जाता है। जित्तो मन्दिर के प्रांगण में जित्तो बाबा की एक प्रतीकात्मक मूर्ति भी है, जिसमे वे मां वैष्णो देवी दरबार की तरफ देख रहे हैं। जित्तो बाबा मंदिर परिसर में एक पानी का कुंड भी है। मान्यता है कि इसमें स्नान करने से स्त्रियों को संतान प्राप्ति होती है। हमने भी दर्शन किए और बस में आकर बैठ गए। 
माता के भवन की ओर देखते हुए बाबा जित्तो।


बाबा जित्तो ओर उनकी पुत्री बुआ कोड़ी। कोड़ी बुआ को माता वैष्णो का अवतार माना जाता हैं।
(उपरोक्त दोनो चित्र मेरे द्वारा नही लिए गए हैं)



                         कुछ देर बाद बस ने प्रस्थान किया। 10 मिनट भी नहीं चले होंगे कि फिर से ड्राइवर साहब ने ब्रेक लगा दिए।  अब रुकने की बारी थी नौ देवी मंदिर में। नौ देवी मंदिर के बारे में आपको बता देता हूं कि 9 देवी मंदिर कटरा-शिवखोरी यात्रा मार्ग पर स्थित है। शिवखोड़ी जाने वाले लगभग सभी यात्री इस मंदिर के दर्शन करते हैं। जब हम ने मंदिर में प्रवेश किया, तो कुछ सीढियां उतरने के बाद हमारा सामना लम्बी लाइन से हुआ। जो मुख्य गर्भगृह है, वह बहुत नीचे उतर कर है। इस मंदिर में माता पिंडी रूप में अवस्थित है, लेकिन इसमें छोटे-छोटे आकार की पिंडियाँ हैं, जिनके लिए गुफा में रेंगते हुए जाना पड़ता है। गुफा कोई 20 फीट के आस-पास होगी पर यह गुफा ना तो ज्यादा संकरी हैं और ना ही बहुत खुली। हमने भी लाइन में लगकर आधा घंटा इंतजार किया और पहुंच गए गुफा के दरवाजे पर। लोग धीरे-धीरे गुफा के अंदर प्रवेश कर रहे थे तो दिवांशु और मैंने भी झुक कर अपने चारों पैरों( 2 हाथ और 2 पैर) पर चलकर गुफा में प्रवेश किया और अंदर जाकर माता के दर्शन किए।

                यह मंदिर एक नदी के किनारे स्थित है। यह स्थान बहुत रमणीक प्रतीत होता है। मंदिर से बाहर आकर हमने आसपास के नजारों के साथ अपने चित्र लिए। जिस समय हम चित्र ले रहे थे, तो दोनों का इकट्ठा फोटो लेने के लिए हमने एक यात्री को बोला। हमारे फोटो खींचने के बाद उसने हमें उसका फ़ोटो लेने के लिये बोला। बस ऐसे ही जान पहचान हो गई। वह चार लोग थे जो हैदराबाद से आए थे। बातचीत हुई तो उन्होंने मुझे हैदराबाद आने का न्योता दिया और नम्बरो का आदान-प्रदान भी हुआ। इसके बाद हम सभी इकठे होकर बस में आकर बैठ गए। थोड़ा इंतज़ार के बाद बस भी अपने गंतव्य की ओर रवाना होने लगी।


9 देवी मंदिर के बाहर नदी किनारे का दृश्य।

देवांशु ओर मैं।


हम दोनों के ये चित्र उन हैदराबाद वाले ग्रुप में से किसी एक ने लिये हैं।
हैदराबाद वालो के साथ एक selfie।


बस के रवाना होने के बाद हम सब आपस मे बातें करने लगे। पहाड़ी रास्तों पर बस नागिन की तरह बल खाती हुई चक रही थी। बहुत से लोगो को यह समस्या होती है कि वे अपना खाया-पिया सारा बस में निकाल देते हैं। हम सबसे आखिरी सीट पर बैठे थे और window seat पर मैं  बैठा था, तो मैंने तो अपनी खिड़की बन्द कर रखी थी। क्या पता कब किसी को feeling आ जाए और भुगतना मुझे पड़े। लगभग 1 घण्टे बाद बस एक ढाबे पर आकर रुकी। इस ढाबे से शिवखोड़ी की दूरी 35 किलोमीटर रह जाती है। यहाँ बस में आधा घण्टा रुकना था, तो हमने भी उतरकर चाय और ब्रेड का नाश्ता किया, ओर शुरू हो गया photo session।
जय हिमालय।


मेरे पसंदीदा चित्रो में से एक।

पर्वतों की गोद मे 2 भाई।



आज मेरा पूरा मन था कि इस यात्रा को पूर्णविराम दे दूं। पर माफी चाहूंगा मित्रों, दीपावली के शुभ अवसर पर घर की साफ सफाई करनी है। जिमिदार का बेटा हूँ, तो घर पर खेती का बहुत सामान है। अतः सफाई में समय बहुत लगता है। अगले भाग में आप सब को शिवखोड़ी गुफा के दर्शन करवाएं जाएंगे। तब तक के लिये मुझे जाने की आज्ञा दें ।


आप सब को आज धनतेरस, नरकचतुर्दशी, महापर्व दीपावली, गोवर्धन पूजा और भैयादूज की कोटि कोटि शुभकामनाएं देता हुआ मैं विदा लेता हूँ। जल्द ही मुलाकात होगी।

तब तक के लिये जय हिंद।