गतांक से आगे
27 जुलाई 2017
सुबह लगभग 9:15 के करीब तो मैं भंडारे में पहुंचा ही था, उसके बाद 10-15 मिनट वहां के वातावरण में खुद को ढालने में लग गए। तत्पश्चात शौच आदि क्रियाओं से निवृत्त होकर कुछ समय कमर भी सीधी की। आखिर कल रात 6 बजे का बैठा हुआ मैं 10 बजे बस से उतरा था। इसी बीच में नाश्ता भी किया। उसी दौरान मैं फोन पर घर वालो को अपने पोवारी पहुंचने ओर अगले कुछ दिन बात न होने की सूचना दे रहा था। मैं हरियाणवी में ही बात कर रहा था। बात खत्म होते ही एक शख्स मेरे पास आये और पूछा कि मैं कुरुक्षेत्र की तरफ का हूँ क्या??
मैने हाँ में जवाब दिया तो पता चला कि उनका नाम सतीश कुमार जी था और वो पिपली(कुरुक्षेत्र) के रहने वाले थे। वो दर्शन करके लौट चुके थे। कुछ हिदायतों के साथ-साथ उन्होंने मुझे अगले वर्ष अपने साथ आदि कैलाश यात्रा पर जाने का न्योता दिया। नम्बरो का आदान-प्रदान हुआ और कुछ चित्र भी। उन्हें जाना था तो वो चले गए।
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पोवारी में भंडारे से निकलते ही ऐसा नजारा दिखता है। |
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जो चश्मे वाले हैं, वो सतीश जी हैं कुरुक्षेत्र वाले। |
इन सब के चलते लगभग 11 बजे का समय हो गया था। फोन की बैटरी 84% हो चुकी थी। मैं सोच रहा था कि 100% हो जाए तो मैं यहां से अपने गंतव्य किन्नर कैलाश की ओर प्रस्थान करूँ। उस समय मेरे पास oppo का a57 फोन था, जिसकी बैटरी थी 3200mah की।
अब इसके पीछे का शास्त्र सुनिए- यदि आप भी मेरी तरह गरीब घुमक्कड़ हैं, या budget ट्रैवलर हैं और आपके पास power bank नही है। गरीब इसलिए कहा कि आजकल power bank सबके पास ही होता है। पर अपने पास तो नही है....और आप चल दिये किसी यात्रा पर। फोन तो हद से हद एक दिन फ़ोटो खींच लेगा, फिर क्या करोगे?? इसका जवाब मैं देता हूँ....बस आपको ये करना है कि फोन से सिम निकालनी है और किसी अन्य फोन में डाल लेनी है। अब फोन को aeroplane mode पर लगा दो। brightness को auto की बजाय इतना रखिये कि आपको स्क्रीन देखने मे दिक्कत न आए... बस, निकल पड़िए अपने लक्ष्य की ओर।
दोस्तों, ये तरीका अपनाकर मैं 5-5 दिन की यात्राओ की फ़ोटो भी खींच चुका हूँ, ओर आज तक तो फोन कभी बन्द नही हुआ।
वापस आते हैं यात्रा पर...इसी बीच वहां स्थित अन्य यात्रियों से बातचीत होने लगी। तभी वहां भंडारे के संचालक नेगी साहब आ गए। उन से राम-राम हुई तो उन्होंने कहा कि आज आप यही भंडारे में विश्राम करो और कल सुबह 5 बजे यहां से प्रस्थान करना। अगर अब आप 11 बजे निकलते हैं तो आप गणेश पार्क तक नहीं पहुंच पाओगे। कल अगर आप यहां से 5 बजे सुबह निकलोगे तो अब शाम तक आराम से गुफा में पहुंच जाओगे। मैंने पूछा गणेश पार्क कितने दूर है? तो उन्होंने बताया कि लगभग 12 किलोमीटर।
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ये सुनते ही शरीर मे रक्त व उत्साह दोनो का संचार दुगना हो गया। असल मे, उन दिनों मैं हर रोज 8 किलोमीटर की दौड़ लगाता था। मुझे लगा कि 12 किलोमीटर कोई बहुत अधिक नहीं होगा। बेशक पहाड़ी 12 हैं तो क्या हुआ....सोच लेंगे आज 8-8 किलोमीटर के 2 सेट लगा लिए। तो सब के मना करने के बावजूद भी मैंने निकलने का फैसला किया। यहां भंडारा लगाने वालों की दात देनी पड़ेगी। जनसहयोग से इकठ्ठा हुई राशि का जो सदुपयोग यहां होता है, वैसा मैने कहीं नही देखा। स्वेच्छा व सेवाभाव से 15-20 दिन अपने घर से दूर रहकर विभिन्न प्रदेशों से आए व्यक्तियों को भोजन-पानी और रहने की सुविधा उपलब्ध करवाते हैं। जब मैं निकलने लगा तो भंडारे के स्वयंसेवकों ने मुझे एक लाठी प्रदान की और एक पैकेट जिसमें शायद ग्लूकोज के पैकेट, बिस्किट और कुछ खाने का सामान था और पानी की 1 बोतल भी। मैने कहा कि मेरे पास पानी की बोतल है, मैं कहीं से भी पानी भरकर पी लूंगा। यह बोतल आप रखिये, किस अन्य यात्री के काम आ जायेगी। तो उन्होंने कहा कि जो पानी पहाड़ो से निकलता है, उसे पीने से बचें और यह मिनरल वाटर की बोतल तो आपको ले जानी ही पड़ेगी। उनका सम्मान करते हुए मैंने बोतल ले ली और वहां लगे हुए किन्नर कैलाश महादेव के स्वरूप चित्र की ओर सिर झुकाकर उनसे सफल यात्रा ओर अपने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ करने की कामना की और अपने कदम भंडारे से बाहर की ओर बढ़ा दिए।
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Zoom करो...बादल दिखेंगे। उनके अंदर देखो, कुछ बर्फीली चोटियां दिखेंगी.....बस वहीं जाना है उनके पास...... पर कई पहाड़ पार करके। |
प्रच्छन्न से प्रत्यक्ष की ओर :-
बाहर सड़क पर आकर रिकांगपिओ की तरफ लगभग 200 मीटर चलने के बाद एक झूला पुल आता है, जहां से आपको सतलुज पार करनी होती है। जैसे ही आप सतलुज पार करते हो, किन्नर कैलाश की तरफ जाती हुई मानव निर्मित सीढ़ियां आपका स्वागत करती हैं। दूर से देखा तो यह झूला पुल मुझे बहुत खतरनाक लगा। अपने रौद्र रूप में घर्र-घर्र करती हुई बहती सतलुज और उसके ऊपर एक लोहे की तार पर पहिए के सहारे चलती हुई लोहे की टोकरी जिसमें 2 लोग बैठकर जाते हैं। बीच में सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं। अब एक जानकारी और सुनिए.....असल मे ये जो झूला पुल का concept है न, ये झूला पुल का नही है। ये जो टोकरीनुमा पुल है, ये असल मे सेबों की ढुलाई के लिए प्रयुक्त होता है। ऊंचाई पर या दुर्गम स्थानों पर लोहे की मोटी तार खींचकर पहिये से टोकरी लटका देते हैं। साथ में जनरेटर जोड़ देते हैं। ऊपर से नीचे तो टोकरी खुद ही आ जायेगी, वापिस ऊपर भेजने के लिए जनरेटर से भेजते हैं। उसी सेब ढुलाई के concept को यहां लागू किया गया है, जो जोखिमपूर्ण है। पर जब आपके पास कोई और रास्ता ना हो, तो आपको वो रास्ते अपनाने पड़ते हैं जो बहुत मुश्किल साबित होते हैं। पर हम तो संघ के स्वयंसेवक हैं, और हर रोज अपनी प्रार्थना में यही कहते हैं-
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं।
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्।।
अर्थात, बेशक यह मार्ग अनेकानेक कठिनाइयों और कंटकों से भरा पड़ा है, पर फिर भी हमने इसी कठिन व कांटो वाली राह को अपनी स्वेच्छा से चुना है। यही बात यहां पर सिद्ध होती साबित हुई। सतलुज पार करने के लिए एक ओर पुल भी है, लेकिन वह डेढ़ किलोमीटर आगे जाकर है। अब डेढ़ किलोमीटर आगे जाऊं, फिर उस पुल को पार करूं और फिर डेढ़ किलोमीटर वापस आऊं तो 3 किलोमीटर का सफर फालतू में करूँगा। 3 किलोमीटर मतलब आधे से पोना घण्टा, जबकि वही सफर मुझे 50 मीटर में पड़ेगा। यह 50 मीटर घाटे का सौदा साबित हो सकता है पर जब भोलेनाथ पर विश्वास हो, तो यह सब बाधाएं आपका रास्ता नहीं रोक सकती।
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जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि टोकरी में बैठकर 2 लोग इस तरफ आ रहे हैं। पर ये क्या, वो तो खुद ही रस्सी खींच कर टोकरी में ही इकठ्ठा कर रहे हैं....क्या मुझे भी ऐसे ही जाना पड़ेगा। वहां एक शेड बना हुआ था। मुझे लगा कि इसमें कोई होगा। मैंने आवाज लगाई तो उसमे से 2 महिलाएं बाहर आईं। मैंने कहा कि मुझे उस तरफ जाना है, तो उन्होंने कहा 5 मिनट लगेंगे। उन्होंने आवाज़ लगाई तो उसी शेड में से एक आदमी बाहर आया। तब वो बात करने लगे...अपनी किन्नौरी बोली में। मैं कुछ कुछ अंदाजा लगा पाया कि वो आदमी मुझे खींचेगा। मैं सोच ही रहा था कि वो भी यहां, मैं भी यहां....फिर कैसे खींचेगा?? तभी वह व्यक्ति लोहे की टोकरी में बैठा और रस्सी से खुद ही टोकरी खींचने लगा। अब मैंने देखा कि लोहे की तार के साथ-साथ डबल रस्सी भी बंधी हुई थी, जो दोनों तरफ से टोकरी खींचने के काम आती है। वो रस्सी खींच-खींच कर टोकरी में ही इकट्ठा करता रहा और इस तरह दूसरे पार पहुंच गया। उसके जाने के बाद हमने वो टोकरी खींची और मैं बैठ गया उसमे अपने बैग ओर लट्ठ के साथ। उधर से वो सज्जन टोकरी खींचने लगे। 8-10 फ़ीट के बाद नीचे देखा तो होश फ़ाख्ता ही गए। मेरे से 60-70 फुट नीचे सिंहनाद करती हुई सतलुज बह रही थी। आपने एक बात देखी होगी...जब आप किसी चौड़ी नदी के पास, समुंदर के किनारे या किसी पहाड़ की धार पर होते हो, तो वहां वायु की गति सामान्य से कुछ ज्यादा ही होती है। कारण, उसके आसपास का वातावरण खाली होता है तो वहां हवा अपनी मर्जी से बहती है क्योंकि उसकी राह में कोई अवरोध नही होता। मेरे केस में भी ऐसा ही हो रहा था यहां सतलुज का पाट काफी चौड़ा है और सतलुज बहती भी एक घाटी में है तो हवा तेज चल रही थी। जब आप किसी टोकरी में एक रस्सी के सहारे लटके हो और खींचने पर वह टोकरी तो हिलती ही है, कुछ हवा भी उसे हिलाती है...तो टोकरी दाएँ-बाएँ हिल रही थी। टोकरी के साथ साथ मेरा दिल भी हिल रहा था। तैरना मुझे आता नहीं, अगर नीचे गिरा तो मृत्यु निश्चित है। पर वो कहते हैं ना जब मूसली में सिर दे दिया तो ऊखल से क्या डरना....क्या कहा.... मैं गलत बोल रहा हूँ। जी हाँ.... अब लग रहा है कि गलत है, पर उस समय ऊखल-मूसल सब mix हो गए थे।
वैसे तो मैंने साइंस दसवीं के बाद छोड़ दी थी, पर ऐसी विकट परिस्थितियों में साइंस ही काम आती है। उस समय मनोविज्ञान का एक नियम ध्यान में आया कि जब आप किसी चीज से ध्यान हटाना चाहते हो, तो इसका सबसे बढ़िया उपाय है कि किसी दूसरी जगह ध्यान लगाओ। तब मैंने अपनी आंख मूंद ली। आंख बंद करने के बाद तो और भी ज्यादा डर लगने लगा। तब मैंने एक उपाय सोचा.....अपनी जेब से मोबाइल निकाला और अपनी वीडियो बनाने लगा। इससे मुझे कुछ राहत मिली। नहीं..नहीं...नहीं, खतरा कम नहीं हुआ बल्कि मेरा ध्यान खतरे से distract होकर फोन में लग गया। जब तक मैं दूसरे किनारे के पास नहीं पहुंच गया, मैं वीडियो बनाता रहा। तो जी, इस तरह से सतलुज पर हुई। उस तरफ जाकर मैने पूछा कि कितने पैसे हुए तो उन सज्जन ने कहा कि यह सुविधा सरकार द्वारा दी गई है.... कोई पैसे नहीं है। वाह..... फ्री में ऐसी adventurous ride....ऐसे ही कोई bungee jump भी करवा दो यार...3500 रपीए लेवे हैं छाल मरवान के ऋषिकेश मैं।
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ज़ूम करके देखिए....टोकरी दिखेगी आपको। |
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टोकरी से ऐसी दिखती थी सतलुज। |
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ये है stress management का तरीका....खुद की फ़ोटो खींचने में व्यस्त होकर रास्ते की मुश्किलों को भूल ही जाते हैं। |
सतलुज पार करने के बाद किन्नौर कैलाश का ट्रैक विधिवत शुरू हो जाता है। शुरू में कुछ सीढियां आती हैं। सीढ़ियों पर अपना कदम रखने से पहले झुककर पहली सीढ़ी को प्रणाम किया, और चल पड़ा ऊपर की ओर। ये सीढ़ियां किसी भी आदमी को सांस चढ़ाने के लिए पर्याप्त ऊंची हैं। किन्नर कैलाश के रास्ते में सबसे पहला और एकमात्र गांव आता है- तंगलिंग। वह भी मुख्य रास्ते में नहीं पड़ता, बल्कि रास्ते से थोड़ा सा हटकर पड़ता है। जहां से तंगलिंग गांव का रास्ता कटता है, वहां तक किन्नौर प्रशासन ने कंकरीट का रास्ता बनवा रखा है। इस कंक्रीट के रास्ते की बजरियाँ बाहर को निकली हुई थी, जो चलने में थोड़ी तकलीफ पैदा कर रही थी।
किन्नौर क्षेत्र की मुख्य फसल है- सेब। सबसे उत्तम क्वालिटी का सेब अगर आपको कहीं मिलेगा तो वो मिलेगा किन्नौर में। मुझे बाद में पता चला, यहां का 80 प्रतिशत सेब विदेशों में export होता है। ऐसा क्यों होता है, ये भी आपको बताऊंगा, पर इस पोस्ट में नही। तंगलिंग गांव के लोगों ने भी सेब, अखरोट आदि के बाग़ लगा रखे हैं और उन बागों की सिंचाई के लिए तंगलिंग नाले से ही पानी की व्यवस्था की गई है। पहले उस पानी को मोटर के माध्यम से ऊपर खींचा जाता है और फिर गांव में पक्की नालियों द्वारा सप्लाई किया जाता है। जिसे जरूरत हो वो वाल्व हटाये ओर पानी लेले। ये नालियां रास्ते के साथ-साथ भी बनी हुई है। कई जगह ये नालियां टूटी हुई है। उस हिस्से पर पत्थर रखे हुए हैं। लगातार बहते पानी के कारण उन पत्थरों पर काई जमा हो गई है। ऐसे में बहुत सावधानी से चलना आवश्यक है, जैसा मैं कर रहा था।
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ये है शुरू का कंक्रीट वाला रास्ता। बाएं कोने में सिंचाई वाली नालियां हैं। |
किन्नौर घाटी के मनोहारी दृश्यों को देखते हुए मैं चल रहा था। बमुश्किल 4 फुट की वह कंक्रीट की गली होगी और उसके एक तरफ में अपने पूरे यौवन पर बहता तंगलिंग नाला, जो दूध की नदी की अनुभूति करा रहा था। एक जगह सेब का एक पेड़ रस्ते पर बिल्कुल झुका हुआ था। मैंने वहां खड़े होकर कुछ आवाजें लगाई, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। तब मैंने अपनी लाठी से दो सेब तोड़ लिए और अपने बैग में रख लिए। आखिर मुश्किल समय में यही खाने के काम आएंगे। रास्ते मे कुछ मजदूर मिले जो पहाड़ के साथ एक दीवार खड़ी कर रहे थे, ताकि गिरते पत्थरों से गांव वालों का बचाव हो सके। उनसे पुल की दूरी पूछी, तो कहा बस भाईजी! ये चढाई पूरी करो, सामने ही पुल है। 5 मिनट लगेंगे आपको बस। वो अलग बात है कि वहां से आधे घण्टे से भी ज्यादा लगा नाले के पुल पर पहुंचने में। खैर, मेरे कौनसा रिश्ते वाले बैठे थे तन्गलिंग नाले पर, जो मेरे को जल्दी होती। अपनी मस्ती में चलता हुआ पहुंच गया मैं नाले पर। वहाँ जाकर देखा तो जो पुल था, वो पुल नही था। तंगलिंग नाले को एक पुल के द्वारा पार करना पड़ता है। अब पुल की गाथा भी सुन लो.....नाले के दोनों ओर किसी पेड़ के दो तने रख दो और उनके ऊपर कुछ पत्थर, बस बन गया पुल। अब ऐसी जगहों पर तो ऐसे ही पुल मिल जाए तो शुक्र है। हाँ, अगर आप सिग्नेचर ब्रिज जैसे कि अपेक्षा कर रहे हैं, तो भाई फिर तो दिल्ली ही रहना पड़ेगा। मैंने देखा कि उस पुल के बीच मे खाली सी जगह थी। शायद, बीच का कोई पत्थर पानी में गिर गया था। वो जगह इतनी थी कि अगर किसी का पैर फंस जाए तो वह नीचे गिर सकता था। जब हम ऐसे रास्तों पर सफर करते हैं तो अपनी सुविधा तो हम देखते हैं पर दूसरों को अनदेखा करके। वो क्या कहते हैं..... अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता। मैंने पास से ही एक पत्थर उठाकर बड़े ध्यान से उस खाली जगह पर रख दिया। अब वो पुल पार करने लायक हो चुका था।
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लाल गोले वाला पत्थर मैने ही रखा था। (ऊपर वाला) |
अब थोड़ी जानकारी इस रास्ते के बारे में..... पोवारी, जो किन्नर कैलाश यात्रा का base camp है, वो है 1990 मीटर पर। ओर मलिंग खाटा, जिसे गणेश पार्क या आशिकी पार्क कहते हैं, वो है 3442 मीटर पर। पोवारी में सतलुज पार करने के बाद तीखी चढाई है, जो बाद में सामान्य हो जाती है और फिर उतराई में परिणत हो जाती है। तो मेरे विचार से तंगलिंग नाले का पुल भी 2000 से 2200 मीटर की बीच ही होना चाहिए।
पुल पार करने के बाद जब मैं दूसरी तरफ गया, तो आराम करने के लिए एक पत्थर पर बैठ गया। तब मेरे मन में एक विचार आया कि अगले तीन-चार दिन तक तो मुझे ऊपर पहाड़ों पर ही रहना है। वहाँ नहाने का कुछ मिले या ना मिले, तो क्यों ना यही नहा कर चला जाए। बस उतारे कपड़े और बैठ गया तंगलिंग नाले के किनारे। अब आप सोच रहे होंगे कि कपड़े उतार कर तो छलाँग मारी जाती है.....मारते हैं भई....पर यहाँ 2 कारण थे ऐसा करने के। पहला तो मुझे तैरना नहीं आता। दूसरा, नाले में पानी भी थोड़ा ही था। मैं बीच मे बैठकर भी नहा सकता था, पर ऐसे नालों का कोई भरोसा नहीं होता। कभी भी इनमें पानी ज्यादा आ जाए और वैसे भी अब तो दिन के 12 बजे के करीब का समय है। धूप के कारण ऊपर ग्लेशियर पिघल रहे होंगे, तो एकदम से पानी का स्तर कभी बढ़ सकता है। इस समय पर किसी भी पहाड़ी नाले में बीच में नहाना समझदारी की बात नहीं होती। तो मैं साइड में बैठ गया और अपने हाथों की अंजुली में पानी भर के नहाने लगा। मनुष्य का रक्त गर्म होता है, पर ये जो ग्लेशियरों का रक्त होता है न दोस्तों, ये इतना ठंडा होता है कि आपकी न करवा दी। किसी तरह नहाया और नहाने के बाद, जो सेब तोड़ रखे थे, उनमें से एक सेब का भक्षण किया, कुछ चित्र खींचे व आगे की तरफ कदम बढ़ा दिए।
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नहाने से पहले का चित्र। |
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हलो फ्रेंडस! सेब खालो..... |